________________ 106 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 45 // प्रासङ्गिक प्रकीर्णक-अधिकार // [ कल्पोपपन्न-देवोंके दस प्रकार और उनके स्वरूप ] अवतरण-ग्रन्थकार भवनपति तथा व्यन्तरनिकायाश्रयीं देवोंके प्रकार, उनकी अवस्थाएँ तथा कल्पसम्बन्धित व्यवस्थाएँ जतानेकी इच्छासे, प्रस्तुत अधिकार चारों निकायोंमें होनेके कारण चारों निकायाश्रयी प्रकीर्णाधिकारका प्रारम्भ करते हुए प्रथम कल्पोपपन्न देवोंके कुल प्रकार कितने हैं ? ये बताते हैं इंद सम तायतीसा, परिस-तिया-रक्ख लोगपाला य / . अणिय पइण्णा अभिओगा, किञ्चिसं दस भवण वेमाणी // 45 // गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 45 // विशेषार्थ-जैसे मनुष्यलोकमें राजा, जागीरदार, महामात्य, नगरसेठ, पुरोहित-राज्यगुरु, फौजदार, सभासद और चांडाल आदि अलग अलग प्रकारकी व्यवस्था और कर्तव्यों पूर्ण करनेवाले व्यक्ति होते हैं और उनके द्वारा राजा और प्रजाकी सारी व्यवस्था, संरक्षण और सर्व व्यवहार सुचारुरूपसे चलाया जाता है। उसी प्रकार देवलोकमें भी इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंशक, तीन पर्षदामें बैठने योग्य अधिकारी देव, आत्मरक्षक देव, लोकपाल देव, सेनाके देव, प्रकीर्ण, आभियोगिक और किल्बिषिक इस तरह दस प्रकारके देवोंसे भवनपति, वैमानिकादि चारों निकायोंके देवलोकका तन्त्र सुव्यवस्थित रूपसे चल रहा है। इनमें सभी ‘देव नीचे बताये गये अपने अपने अधिकृत कर्तव्योंमें सदा परायण रहते हैं / उन दसों प्रकारके देवोंकी संक्षिप्त व्याख्या और उनका कर्तव्य इस प्रकार हैं 1. इन्द्र-जिस देवलोकका स्वामित्व स्वयं प्राप्त किया होता है और वहां के वर्तमान 'सर्व देव जिसे अपने स्वामीके रूपमें स्वीकार करते हैं वह 'इन्द्र' कहलाता है। 2. सामानिक-कान्ति-वैभव आदिमें इन्द्रके 'समान ऋद्धि जिन्हें प्राप्त हुई हो और जिनसे इन्द्र भी सलाह लेते हों वे 'सामानिक' कहलाते हैं। ये देव इन्द्रके समान रिद्धिवाले होते हैं, फिर भी ये इन्द्रोंको अपना स्वामी मानते हैं। ये देव भी अपने विमानों में रहते हैं। 3. त्रायस्त्रिंशक-(एक इन्द्रकी अपेक्षाके रूपमें ) जिनकी तैतीसकी ही संख्या हो और जो इन्द्रके स्वामित्वके विमान, देव आदि सबकी चिंता करनेवाले होनेसे मन्त्रीके साथ शान्तिक-पौष्टिक कर्म और पुरोहित-राज्यगुरुका काम भी करनेवाले होते हैं। उनकी संख्या