________________ समभूतल और रुचकस्थान ] गाथा 40-41 [101 पहले समझ लिया कि रत्नप्रभा पृथ्वीका पिण्ड 1 लाख 80 हजार योजनका है। उसमें ऊर्ध्व-अधः एक हजार योजन छोड़कर, अवशिष्ट मध्यभागमें भवनपति देव और नारक जीव रहते हैं। पुनः छोड़े गये केवल ऊपरके ही हजार योजनमेंसे ऊपर-नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर अवशिष्ट 800 योजनमें व्यन्तर रहते हैं। और उन छोड़े हुए ऊपरके सौ योजनमेंसे पुनः ऊपर-नीचेसे दस दस योजन छोड़कर अवशिष्ट 80 योजन पृथ्वीमें प्रस्तुत वाणव्यन्तर देव बसते हैं। अत: 'संग्रहणी 'में जो ‘रुअगअहो दाहिणुत्तरओ' पद दिखाया वह उचित है; क्योंकि छोड़े हुए वे 10 योजन, मेरुके कन्दसे वाणव्यन्तर स्थान तकके हैं और इन दस योजन ऊपरके ऊर्ध्वभागके मध्यमें रुचक स्थान आया है / तत्पश्चात् 80 योजनमें वाणव्यन्तर रहते हैं। यह मेरुपर्वत रत्नप्रभा पृथ्वीके पिण्डमें 1000 योजन गहरा आया है अतः ठेठ ऊपरसे ( कन्दभागसे ) नीचे आने पर व्यन्तर स्थान पूर्ण होने के बाद, सौ योजनके अन्तमें मेरु पूर्ण होता है और ज्यों-ज्यों नीचे जाता है त्यों-त्यों उसकी परिधि भी वृद्धि पाती जाती है यह भी स्पष्ट समझमें आता है। _____ अब दूसरे प्रश्नके समाधानके पूर्व यह भी निर्णय कर लेना आवश्यक है कि समभूतला स्थान वही रुचक स्थान है या अन्य ? तो समझना कि समभूतल और रुचक स्थान एक ही वस्तु है, लेकिन अन्यान्य स्थानवाली वस्तुएँ नहीं हैं। - यह जो बात स्पष्टतासे-श्री भगवतीजी, स्थानाङ्ग, नन्दीवृत्ति, नन्दीचूर्णि, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, तत्त्वार्थवृत्ति, आवश्यक, विशेषावश्यक, लोकप्रकाश, क्षेत्रसमास, संग्रहणी, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूर्यप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति, मंडलप्रकरणादि-अनेक सूत्र १२३ग्रन्थोंमें समझाई गई है। 'समभूतला-रुचक' स्थान कहाँ आया है ? समभूतल-रुचकस्थान, यह मेरुके दस हजार योजनके परिघिवाले कन्दभागके नीचे 'धर्मा-रत्नप्रभा पृथ्वी में आये हुए दो क्षुल्लक प्रतर हैं उनका मध्यभाग है। टिप्पणी-समभूतला वही रुचकस्थान' है वह, और वह धर्माके क्षुल्लक प्रतरमें ही है, उन दोनों बातोंका कथन करनेवाले सिद्धान्तोंकी मुख्य मुख्य साक्षियाँ यहाँ दी गई हैं / 123. 'श्री भगवतीजी' सूत्रमें श्री गौतमस्वामीर्जाने पूछे चन्द्र-सूर्य सम्बन्धके उत्तर-प्रसंगमें चरमतीर्थपति श्री महावीरदेवने बताया है कि 1. 'गोयमा ! जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्सदाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओं उद चन्दिमसूरियगहाण-नक्खत्त–ताराख्वाणं'-इत्यादि [ श्री भगवतीसूत्र ] 2. 'कहिन्नं भंते तिरिप्लोगस्स आयाममज्जे पणत्ते ? ' गोयमा ! जंबुईवे दीवे मन्दरस्स पब्वयस्स