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( ४४ ) बुध हंसनकी प्यारी ॥ मन० ॥२॥ काहेको सेवत भद झीलर, दुखजलपूरित खारी। निज बल पंख पसारि उड़ो किन, हो शिव सरवरचारी ॥ मन० ॥३॥ गुरुके वचन विमल मोती चुन, क्यों निज वान विसारी । है है सुखी सीख सुधि राखें, भूधर भूलें ख्वारी ॥ मन०॥
. ६१ राग--धनासरी। सो मत सांचो है मन मेरे ॥ टेक ॥ जो अनादि सर्वज्ञप्ररूपित, रागादिक बिन जे रे । सो मत० ॥१॥ पुरुष प्रमान प्रमान वचन तिस, कलपित जान अने रे । राग दोष दूषिन तिन वायक, सांचे हैं हित तेरे ॥ सो मन० ॥२॥ देव अदोष धर्म हिंसा बिन लोभ बिना गुरु वे रे । आदि अन्त अ. विरोधी आगम, चार रतन जहँ ये रे । सो मत ॥३॥ जगत भयो पाखंड परख विन, खाइ खता बहुतेरे भूधर करि निज सुवुधि कसौटी धर्म कनक कसि ले रे ॥ सो मत० ॥४॥
मेरे चारौं शरन सहाई ॥ टेक ।। जैसें जलधि परत बायसकों वोहिथ एक उपाई ।। मेरे० ॥१॥प्र.