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११८ - गगनी जोगिया असावरी की चाल में।
जिया तैने करी है कुमति संगयारी, मैं जानी वात तुम्हारी रे । टेक हमस तो तू टलता ही डोलै, उनसे प्रीति करारीरे । जी का झाड़ होयगी तेरा, जो तोहि लागत प्यारी-रे ॥ १॥ क्या तुम भूलगये उस दिनकू, पड़े थे निमोढ़ मंझारी । एक स्वास म जनम अठारा, पाते वेदन भारा र॥२॥ अजहूँ हम तुमकं समझावत, सुनरे पीव अनारी । तजि परसङ्ग कुमति सौतन की, नातर होगी ख्वारी रे ॥३॥ नयनानन्द चलो जब ह्यांसे, कीजो याद हमारी। जो न करू उपगार तुम्हारा, तो मोहि दीजो गारी रे ॥४॥
११६ रागनी खास देश की ठुमरी ।
हम देखे जगत के साधु रे, कहीं साधु नज़र नहीं आते हैं । टेक कोई अङ्ग भभूति रमाते हैं, कोई केश नखून बढ़ाते हैं। कोई कन्द मूल फल खाते हैं, वे साध का नाम लजाते हैं ॥१ कोई नाहक कान फडाते हैं, फिर घर घर अलख जगाते हैं। कलि झुट जगत भरमाते हैं, गहि हाथ नरक लेजाते हैं ॥३ घर छोडि विपन चले जाते हैं, मठ छाप धुजा बनवाते हैं। वे पूजा भेट घराते हैं, सो बमन करी फिर खाते हैं ॥३ निम्रन्थ गुरू नहीं पाते हैं, जो मारग मोक्ष बताते हैं। नयनानन्द सीस नमाते हैं, हम उनके दाल कहाते हैं ॥४