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' (लावनी); अबला तन लखि अल्प धीर जी मोही मानप फंसते हैं सो दुर्बुद्धी छोड़ नर्क में पड़ते हैं ॥ टेक ।। मृगनयनी के नयन रसीले श्याम श्वेत छवि अरुनाई, चंचलनाई निरख कर नर की न रहे थिरथाई, मुख सरोज अरु उर सरोज लखि मरख मन अति उलझाई, परवसताई महा दुख आप आप को प्रगटाई, मनके चलते लाज तजै फिर चलते खोटे रस्ते है। अवला तन० ॥१॥ लज्जा रहित कुधी पर त्रिय को निरख निरख बहु वात करें, परिचय राखें वक्त पर हो निश्शंक वृषघात करें कर विश्वास निसंक अंक भर नर त्रिय शीतल गात करें, अधम काज यह न होवे जाहर यह विचार दिनरात करे, शका तज गुरु तात मात की पर नारी से हंसते है ।अबला० ॥२॥ लज्जावान पुरुप भी क्रम क्रम शंका तज विश्वास करे किर क्रम क्रम से प्रिय वचन सुनत उर आस करे प्रीत वटै आशक्त होय अति दोनों वचनालाप करें, मिल कर रहना विरह मे दोनों उर सन्ताप करें, क्षोभित मन पापी नर कुल की मर्यादा सो खोते हैं । अवला० ॥३॥ एकाकी कामिन से नर को कभी न बतलाना चाहिये अंधकार में लाज तज कभी न ढिग जाना चाहिये शील