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( ५४ ) कुछ० ॥ ३ ॥ घर जमीन बरबाद करी, घर पै औरत बीवी रोती। बेच दिये मेरे हंसले कठले, वचे नथली के मोती । एक सेज जब मिली न पाई, कलाल को जा दी धोती। बेहद पीने वालों की अकसर, हालत ऐसी होती! रामचंद सतसंग रंगका, पिया करो मित्रो प्याला । पिलादे साकी रहै न बाकी कुछ बोतल में गुललाला ।। ४ ।।
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( भजन-शराब निषेध) मयकशी में देखलो, यारो मजा कुछ भी नहीं, खुदबखुद . वखुद वने, लेकिन मजा कुछ भी नही ।। टेक ।। सारे घर का मालोजर, बोतल के रस्ते खोदिया। मुफ्त में इज्जत गई, पाया मज़ा कुछ भी नहीं ॥ मय कशी० ॥१॥ जब नशा उतरा तो हालत, और बदतर होगई । खाली वोतल देखकर बोले मज़ा कुछ भी नहीं |मयकशी०॥२॥ रात दिन नारी विचारी, जान को रोया करे । ऐसी मयख्वारी पै लानत है मज़ा कुछभी नहीं ॥ मयकशी० ॥३॥ न्यायमत इस मय की उलफत का, नतीजा देख लो। वस खराबी के सिवा इसमें मजा कुछभी नहीं ।। मयकशी मे देखलो यारो मजा कुछ भी नहीं ॥४॥