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देखि बिमासी तनके हांसी निज घर पासी सुख पासी, बारंबारा करो बिचारा ईश्वर शुद्ध हिये धरणं ! भग अर हन्तं भज अरहन्तं ।।।।
सुमति जागी भयो विरागी घर धनधास बस, ज्ञान अभ्यासी परम उदासी सिंघासी पिणनाहि नसै, आठ चीस गुण धरै मुनी सुर इम रीस रहित शिरता गर्ने, चाले मन माने बसन विगाने आय आय पर पर जाने, यह मुनिराज विराजत जहां जहां तहां मुझ धोक हुओ चरणं ॥ भज अरिहन्तं भज अरिहन्तं ॥६॥ __ मतचार अनारज कीने खारन आचारज अकसंक मुनी, जिस डंक बनायो सभा सुनायो मैं गुनगायो ग्रंथ सुनी । तजो कुदेवा भजो सुदेवा कुगुरु सुगुरु को भेव लहौ, परजग साग को न तम्हारा क्यों पापी की पक्ष गहो, जैतराम फहैं इष्ट नाम जप काटी कर्म जु श्रावरनं ।। भज अरहन्त० ॥१०॥
सम्मत उनीस साल इकीसै दीसे दीसे मत गाये, धर्मी न रीसई पापी रीसई खीसई पापी जाडयन भाये । ऐवी खासा चोर उजाला परे न श्रासा नही लोगो, मैं बलिहारी देव तिहारी भारी कर्म ‘हणो मोरे । सुख संसार क्षार को लेपन चाहूं' भव दधि उद्धरनं ।। मन अरहन्तं० ॥ ११ ॥