Book Title: Prachin Jainpad Shatak
Author(s): Jinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya

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Page 420
________________ ( ६६ ) (वीनती) प्रभु पतित पावन मैं अपावन चरण आयो शरण जी, यह विरद आप निहार स्वामी मेटो जामन मरन जी। तुम ना पिछाना आंन मान्या देव विविध प्रकार जी, या बुद्धि सेती निज न जाना भूम गिना हितकारजी॥१॥ भव विकट बनमें कर्म बैरी ज्ञान धन मेरा हरयो, तब इष्ट भूल्यो भूष्ट होय अनिष्ट गति धरतो फिरयो । धन घड़ी यो धन दिवस योही धन जन्म मेरो भयो, अब भाग मेरो उदय आयो दरश प्रभुको लखि लियो ॥२॥ छवि वीतरागी नगन मुद्रा दृष्टि नासा पै धरयो, बसु प्रातिहार्य अनंतगुण जुत कोटि रवि छविको हरैं। मिट गयो तिमिर मिथ्यात मेरो उदय रवि आतम भयो, मोउर हरष ऐसो भयो मानो रंक चिन्तामणि लयो ॥३॥ मैं हाथ जोड़ नमाय मस्तक वीनऊ तुम चरण जी, सर्वोत्कृष्ट त्रिलोक पति जिन सुनो तारन तरन जी । जा नही सुखास पुनि नरराज परिजन साथ जी, वुध जाचहूं तुम भक्ति भव भव दीजिये शिवनाथ जी ॥४॥

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