________________
.
( ६४ )
पद्धरी छंद - जय वीत राग विज्ञान पूर, जय मोह तिमिर को हरन सूर | जय ज्ञान अनंतानंत धार, हग सुख वीरज मंडित अपार || २ || जय परम शान्न मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूत हेत । अदि भागन वच जोगे शाय, तुम धुनि सुनि विभूम नशाया || ३ || तुम गुण चिन्तंत निज पर विवेक, प्रगटें विघंटें आपद अनेक 1 तुम जग भूषण दूषण वियुक्त, सब महिमा युक्त विकल्प मुक्त || ४ || अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप, परमात्मा परम पावन अनूप | शुभ अशुभ विभाव प्रभाव कीन, स्वाभाविक परण तिमय अछीन ॥ ५ ॥ अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्वचतुष्टय मय राजत गम्भीर | मुनि गनधरादि सेचत महन्त, नव केवल लब्धि रमा घरन्त ॥ ६ ॥ तुम शासन से अमेय जीव, शिव गये जांहि जैहै सदीव |
भवसागर में दुख छारवार, तारन को औरन श्रापटार ||७|| यह लखि निज दुख गद हरण काज, तुमही निमित्त कारण इलाज | जाने ताते मैं शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय ॥ ८ ॥ मैं भूम्यो अपन पौ विसरि आप, अपनाये विधि फल पुन्य पाप । निज को पर को करता पिछान, परमें अनिष्टता इष्ट ठान || ६ || श्राकु लित भयो अज्ञान धार, ज्यों मृग मृगतिष्ना जानि वार ! तन परणति में श्रापौ चितार, कबहूं न अनुभयौ स्वपद
1