Book Title: Prachin Jainpad Shatak
Author(s): Jinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya

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Page 417
________________ U (६३) अनंत ज्ञान अनंत सुख वीरज भरे, जयवंत ते अरहन्त शिवतिय फन्त मो उर संचरे॥१॥ जिन परम ध्यान कृशाऽनुवान सुतान तुरत जला दये, युतमान जन्म जरामरण मय त्रिपुर फर नहीं भये । अविचल शिवालय धाम पायो स्वगुणते न चलें कदा, ते सिद्ध प्रभु अविरुद्ध मेरे शुद्ध ज्ञान करो सदा ॥ २ ॥ जे पञ्च विधि आचार निर्मल, पञ्च अग्नि सुसाधते । पुनि द्वादशांग समुद्र अवगाहत सकल भ्रम बाधते, वरसर सन्त महन्त विधिगण हरण को अति दक्ष है । ते मोक्ष लक्ष्मी देहु हमको जहां नाहि विपक्ष है ॥ ३ ॥ जो घोर भव कानन कुबटवी पाप पञ्चानन जहां, तीक्षण सकल जन दुखकारी जासको नखगण महा, तहां भ्रमत भले जीवकों शिव मग बतावें जे सदा, तिन उपाध्याय मुनिंद्र के चरणारविन्द नम सदा ।। ४ ॥ बिन संग उग्र अभंग तपतें अंगमें अति खीन । है, नहिं हीन ज्ञानानंद ध्यावत धर्म शुक्ल प्रवीन हैं, अति तपो कमला कलित भासुर सिद्ध पद साधन करें, ते साधु जयवन्तो सदा जे जगत के पातिक हरें ॥ ५ ॥ __ (वीनती सकल) दोहा-सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन ॥१॥ सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरिरज रहस विहीन ॥

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