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[७३ ] अजी षटकी खटपट तज भविजन, सारभूत जिन चितमें धरमन धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष, पुरुषारथ फल पाईं ॥३॥ अजी शंकरसिंह नवल कपि तारे, भील भुजङ्ग मतंग उवारे । दृग सुख के हग दोष हरो, थारे सेवक कहलाधैं ॥४॥
[ १५० ] मैं तज दिये सर्व कुदेव अठारह दोष धरण हारे, अजी दोष धरन हारे सब टोरे, निर्दोषी इक तुम ही निहारे, बीत राग सर्वज्ञ तरण तारण का विरद थारै ॥ टेक ॥ भूख प्यास तुमर्फ़ नहीं दाता, राग द्वेष अरु नाही असाता। जन्म मरण भय जरा न व्यापै, मद सघ निर्वारे ॥१॥ मोह खेद प्रस्वेद न आवै, विस्मय नींद न चिन्ता पावै। भजगई रति अरु अरति कहै, सुर नर मुनि जन सारे ॥ २॥ भूखा देव लिपटता डोले, प्यासा नित सिर चढ़ चढ़ बोले। रागी छोन पराया धन दे, द्वेषी दे मारै॥३॥ कि रोगी रोग सहित दुख पावै, जन्म धरै सो मर मर जावै । । डर कर बाँधै शस्त्र बुढ़ोपा, सुध बुध हर डारे ॥ ४ ॥ मद वाला नित मदिरा पीवै, मोह मूर्छित मरा न जीवै। स्वेद खेद बिस्मय कर व्याकुल, फिसको निस्तारै ॥ ५ ॥ सोवै सो परमादी होवै, डूबै अरु सेवग कु डबावै।। खोवै आतम गुण सुतुम्हारे, गुण कैसे निर्धारै ॥ ६ ॥ चिन्तातुर को चिन्ता सोखे, रति बेहोश अरति से होकै । भूत भवानी ऊत मसानी, तजदो सब प्यारे ॥ ७॥ ब्रह्मा विष्णु महेश हैं वोही, जिसने करभ कालिमा धोई। हगानन्द वोही देव हमारा, सेवो सब जन प्यारे ॥ ८ ॥