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( संकट हरन वीनती) हो दीन बंधु श्रीपती करुणानिधान जी, अब मेरी विथा क्यों न हरो बार क्या लगी॥टेक ॥ मालिक हो दो जिहान के जिनराज श्राप ही । एवो हुनर हमारा तुमसे छिपा नहीं । वेजान में गुनाह जो मुझ से बन गया सही, कंकरी के चोर को कटार मारिये नहीं । हो दीन ०॥१॥ दुख दर्द दिलका आपसे जिसने कहा सही । मुश्किल को हर बहर से लई है भुजा गही। सव वेद और पुरान में परमान है यही, अानंद कंद श्री जिनंद देव है तुही । हो दीन०॥२॥ हाथी पै चढी जाती थी सुलोचना सती, गंगा में ग्राह ने गही गजराज की गती। उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती, भय टारके उभार लिया हे कृपापती । हो दीन० ॥३॥ पावक प्रचंड कुन्ड में उमंड जब रहा, सीता से सत्य लेने को जब गम ने कहा, तुम ध्यान धार जानकी पग धारती तहां, तत्काल ही सरस्वच्छ हुआ कमल लहलहा। हो दीन० ॥४॥ जव चीर द्रोपदी का दुःश्शासन था गहा, सब ही सभा के लोग कहते थे अहा अहा, उस वक्त भीर पीर मे तुमने करी सहा, परदा ढका सती का सो यश जगत मे रहा । हो दीन० ॥ ५॥ सम्यक्त शुद्ध