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प्रभु भक्त व्यक्त जगत भगत मुक्त के दानी, आनंद कंद वंद को हो मुक्ति के दानी, मोह दीन जान दीन बंधु पातक भानी, संसार विषम पार तार अन्तरजामी । हो दीनः ॥ २५ ॥ करुणा निधान वान को अब क्यों न निहारो, दानी अनंतदान के दाता हो संभारो, वृषचंद नंद द का उपसर्ग निवारो, संसार विप मखार से प्रभू पार उतारो । हो दीन० ॥ २६ ॥
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(गजल) मुझे आधार है तेरा तुही जिनराज है मेरा, पड़ा __भवदधि अथाही मे शरण तेरा ही हेरा है।। टेक।। करम जल
चर भरै तामे दुखी करते है जानो हो, अनादि काल से जिन जी इन्हों ने सुझको घेरा है। रोप मद लोभ माया की तरंगे उठ रही ऐसी, किनारे पर से लेजा कर बीच मंझगार गेरा है । लुके आधार० ॥१॥ लोकत्रय छूटके भाई जगह ऐली नही कोई, उरध पाताल मध्यन्तर काल का जान फेरा है । करमसंयोग अपनेसे मिली जिन नाम की नौका, सेवक अब वैठके उतरो भला यह दाव तेरा है। मुझे प्रा० ॥२॥