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( ३० ) हे प्रभु अशरण शरण तुम दीन रक्षक देव हो, कालतीनों हस्त रेखावत लखो स्वयमेव हो । टेक ।। दुख सिंधु ते तुम पार करते प्राणियों के वास्ते, तुम पंथ खोटे को छुड़ा कर लावते शुभ रास्ते ॥१॥ हे ईश तव जो ध्यान धरता शम्मे वह पाता सदा, भक्त तेरा जो रहै नहीं दुख उसको हो कदा। हे प्रभु० ॥ २ ॥ डूबते को तुम सहारा अन्य कोई है नहीं, तुम सा दयाल देव भी कोई नहीं देखा कहीं । हे प्रभु अशरण ॥३।। स्वामी तुम्हारी कीर्ति को मैं किस तरह वरनन करूं, वरनन नहीं मैं कर सकंगा सहस रसना भी धरूं । हे प्रभु अशरन० ॥४॥ हे विभो मम भावना हे राज वोही नित रहै, साम्राज्य जिस के में सदा न्याय की धारा बहै। हे प्रभु अशा न्याय होवे छान करके राज्य जिसके में अहो, दुख न हो जिस राज में वह ही सुशासन नित रहो, । हे प्रभु०॥६॥ दीन दुखियों के लिये विल्कुल सताता जोन हो, साम्राज्य जिसके में कभी अन्याय भी होता न हो । हे प्रभु० ॥७॥ दोषी पुरुष ही जहां दंड पावे नीति का जहां गज हो श्रेष्ठ नर ही श्रेष्ठ हो सम्यक वही साम्राज्य हो । हे प्रभु० ॥८॥ जिस राज्य में निवसे सदा सब मग्न हों नारीव नर,यानंद की वनि हो तथा चारों तरफ वा हर नगर । हे प्रभु०॥६॥