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( ३३ ) लगी । सपग्य ॥ ५ ॥ जगन कर्ता के और हिंसा के जो झट गमायल थे, न्याय परमाण से तुमने किया रद्द मर को कमायी। अपरव०॥६॥ हटा हिंसा किया नुमने दया मर धर्म को जाग, न्यामत जात बलिहारी है दुनियां यश नेग गाती । अपूरब० ॥७॥
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(स्तुनि चाल लावनी ) ह करूणा सागर त्रिजगत के हितकारी, लखि निज शरणागन इगे विपत्ति हमारी ।। टेक ॥ जो एक ग्राम पनि जन की विपता टारे, मनोवांछित जन के कार्य क्षण में सारे, तो तुम त्रिभुवन कं ईश्वर विश्व पुकारे, विश्वास भक्त ताही विधि उर में धारे, फिर भूल गये क्यों ईश हमारी वारी, लखि निज शरणागत हरो विपति इमारी ॥१॥ में निज दुख वरनन करों कहा जग स्वामी, तुम तो सब जानत घट २ अन्तर्यामी, तुम सम दर्शी सर्वज्ञ यशस्वी नामी, मम हरो अविद्या प्रगटे सुख श्रागामी, पर भक्ति तुम्हारी लगै हृदय को प्यारी । लखि निज शरणागत हरो विपत्ति हमारी० ॥ २॥ तुम अधमोद्धारक विरद जगत में छाया, मैं सुना सन्त शारद गनेश जो गाया, यासे आश्रय तक शरण तुम्हारी आया, सब हरो हमारा संकट