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( २७ ) जन प्रानंदकारी । मंगल नायक० ॥ १ ॥ तुम्हारा देश भारत में नहीं जब से हुआ आना, तभी से भेद निज पर का प्रभु रमने नहीं जाना, पड़े है घोर दुखों में सभी क्या रंक क्या राजा, हुई भारत की यह हालत नहीं है आब अरु दाना । जहां मक्खन व मलाई वहां अन्न पै वाजी
आई, यह पाप हमारा नशै हत्यारा पुण्यको हो बढवारी। __ मंगल नायक भक्ति० ॥२॥ नहीं है ज्ञान की बातें न तत्वों ___ की रही चर्चा, नही उपयोग रुपये का बढ़ा है व्यर्थ का __ खर्चा, उठा व्यापार का धंधा गुलामी का लिया दरजा,
छुड़ा के शिल्प शिक्षा को किया है देश का हरजा, सब नौकर होना चाहते, नहीं शिल्प कला सिखलाते, सब नौकर होके पेशा खोके, निशदन सहते ख्वारी । मंगल नायक भक्त० ॥३' धरम के नाम से झगड़े यहां पै खब होते हैं, वढाके फुट आपस की दुखों का बीज बोते हैं, निरुद्यमी आलसी हो द्रव्य अपने आप खोते हैं, हुआ है भोर उन्नति का यह भारत वासी सोते हैं, हम मेल मिलाप वढावें, कर उद्यम धन घर लावें, भारत जागे सब दुख भाजै यह ही विनती हमारी । मंगल नायक०॥४॥
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(सोरठ) प्रभु हरो मेरा प्रमाद मुझे परमाद सताता है ॥टेक॥