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( २०) महानंद भरता, हरेयक्ष राक्षस भूतं पिशाचं, विषमडाकनी विन्न के भय अवाचं ॥ ३ ॥ दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने, अपुत्री को तें भले पुत्र कीने, महा संकटों से निकाले विधाता । सबै संपदा सर्व को देहि दाता ॥४॥ महा चोर को वज्र को भय निवार, महा पौन के पुंजने तूं उबारे, महा क्रोध की आग को मेघ धारा । महा लोभ शैले सको वज्र भारी ॥ ५ ॥ महा मोह अंधेर को ज्ञान भानं, महा कर्म कान्तारको दो प्रधानं, किये नाग नागिन अधो लोक स्वामी, हगे मान को त दैत्य को हो अकामी ॥ ६॥ तुम्ही कल्यवृतं, तुम्ही कामधेन तुम्ही द्रव्य चिन्तामणीनाग एनं, पशन के दुख सेती छुड़ावै । महा स्वर्ग में मुक्ति में त वसावे ।। ७॥ करे लोह को हेम पापाण नामी, रटै नाम सो क्यों न हो मोज गामी, करें सेव ताकी करे देव सेवा । सुनै बैन सोही लहै ज्ञान भेवा ॥ ८ ॥ जपे जाप ताको नहीं पाप लागे, घरै ध्यान ताके सबै दोर भाजे, विना तोहि जाने धरे भव घनेरे, तिहारी कृपा से सरे काज मेरे ।। ।। दोहा-गनधर इन्द्र न कर सके तुम विनती भगवान । चानत प्रीति निहार के, कीजे आप समान ॥ १० ॥