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[७६] १५६- राग भैरूनर ठुमरी। थारे दर्शन से लौ लगी लगी, थारे अजी लगी लगी लो लगी लगी, पर परसन सू लौ लगी लगी, थारे ॥ टेक ॥ परमारथ की प्राप्ति भई अब, तत्वारथ रुचि पगो एगी ॥१॥ सुन सुन जिन धुन मर्म भग्यो सब, ज्ञान कला उर जगी अगो२ आई सुमति सुगति की दायर्यान, कुमति कुभागन भगी भगी ॥३॥ नयनानन्द भयो मन मेरे, कर्म प्रकृति सब दगी दगी ॥४॥
१५७-संध्या भारती-चाल जै शिव ओंकारा।
जै श्री जिन देवा-जै जै जिन देवा-पार लगादो खेवा-फरू चरण सेवा ॥ टेक ॥ वंदं श्री अरहंत परमगुरु, दया धरम धारीप्रभु दया धरमधारी-परमातम पुरुषोत्तम जग जन हितकारी ॥२॥ प्रभु भव जल पतित डधोरण, चरण शरण थारी-प्रभु चरणसद्वक्ता निर्लोभी, करम भरमहारी॥॥ स्वामी तुम पद सेवत गज पनि, भयो समता धारी-प्रभु भयो तीर्थकर पद पारसपा, भयो भवपारी ॥३॥ आयो पिहिता श्रव मुनि मारन मृग पति बलधारी-प्रभु मृग पति-भयो बीरतीर्थ कर सुन शिक्षाथारी ॥ स्वामी दोष फुशील धरो सीता प्रति दुर्जन अविचारी प्रभु दुर्जन-कूद पड़ी अग्नी में लेकै शरण थारो॥ ५॥ खिल गए कबल अगनी में प्रभु तुम मेटे भय भारी-प्रभु-अच्युतंद्रपद दोनो फिग्न होय नारी ॥६॥ बलि ने यज्ञ रचाय दुखी किये मुनि वर ब्रह्मचारी-विश्नुकुमार मुनीश्वर किये तुम उपगारी ||७|| पुष्पहार भए सर्प जिन्होंने तुम सेवा धारी-प्रभु-विदित कथा सतियन की गाः नरनारी ।। ८ । स्वामी वज्र किरण नृप मूरति