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१५४ -- रागनी बरवा या धनासरी या पीलू ।
क्या नर देह धरी, हे बतादे प्यारे क्यों नर देह धरी ॥ टेक ॥ तोले जोर गले पर मोलो, बोले बात जरी, खोसै धन अरु नार बिरानी पाप की पोट भरी, हे बतादे प्यारे क्यों नर देह धरी॥१॥ तृष्णा वश न कियो सठ संबर, दुर्गति वांध धरी। तिर कर सिन्धु किनारे डूबी, यह क्या कुबुद्धि करी ॥ २ ॥ यह तो देह तपस्या कारण, काहू पुण्य धरो। तै तप त्याग लाग विषियन में. राखी याहि सड़ी ॥३॥ बार अनन्त अनन्त जगत में, ते लब देह चरी। क्या न कियो न कियो सो करले, परजा जात मरी॥ ४ ॥ बहु आरम्भ परिग्रह में फँस, किसकी नाव तरी। दृग सुख नाम काम अन्धन के, रेसठ खाक परी ॥ ५॥
१५५-खम्माच पीलू का दादरा । विकलपता सारी टरगई, बिकलपता सारी,
हे जिनजी तुमरे ध्यान सैं ॥ टेक ॥ तुमरे सुगुण सुन सोधे मैंने निजगुण करम भरम रज झारगई ॥१॥ सिद्ध भये मेरे सकल मनोरथ, शुभ गति पायन परगई ॥ २ ॥ पूजत तुम पद डूबत भवदधि, टूटी नवका तिरगई ॥ ३ ॥ चहुँ गति सैं तिरआन भयोनर, उमर भजन में गिरगई ॥ ४ ॥ तिरत तिरत प्रभु थारे चरनन में, नीच हमारी अब अड़गई ॥५॥ जो न करोगे प्रभु पार हमारी नय्या, तौ अब आगे तरलई ॥६॥ नैन चैन प्रभु लोग कहेंगे, ऐसे बाड़ खेत कू चरगई ॥ ७ ॥