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५४] तू तो सुन रहा निशदिन हरदम मौत बिरानो । तेरे लिर पर खेल रहा काल क्या यह नहीं जानी ॥२॥ अब करले प्रभु जी का न्हवन सुनले जिन बानी। तेरी होजाय निर्मल देह यह फेर न आनी ॥३॥ कहै नैनसुक्ख अब तज दे वात छल बल की। तेरे सिर ले पाप की पोट जो होजायाहलकी ॥ ४॥
११७-लावनी जंगले की।
सवण से श्री रघुबीर कह निज मन की। तू जनक सुता दे लाय चाह नहिं धन की ॥ टेक ।। अरे मेरा जो कोई करै बिगाड़ कटुक नहीं भाखें । मैं औगुण पर गुण करू वैर नहीं गर्ख ॥१॥ अरे मैं सतगुरु के मुख सुनी जैन की बानी। यह कलह जगत के बीच स्वपर दुख दानी ॥ २॥ अरे यह बिन कारण बहु जीव मरेंगे रण में। तू अनकसुता दे ल्याय जाऊं मैं वन में ॥३॥ अरे मुझे जगत सम्पदा लिया वित्त फीकी। तू लादे सीता सती कहत हूँ नीफी ॥४॥ अरे वह मो जीवत दुख सहै पड़ी बस तेरे । अब तोकू हतनो परो शोच मन मेरे ॥ ५॥ तव लड्रपती यूं कहै सुनो रघुगई। जो लिखी हमारे फर्म मिटै न मिटाई ॥ ६ ॥ अब पछताये क्या होय जीव लू तेरा। कहै नैनसुख्य रावण षं काल ने घेरा॥ ७ ॥