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११४ - कलंगी छंद। तूतो टांक मास की डली को नाक बतावै । अरु बांध लोकसं खड़ग कंबांक धरावै॥१॥ उसकी तो तीन है फाफ समझले मन में। . हो जैसा तीन का आंक देख दर्पण में ॥२॥ तैंतो इससे सूंघ लिये पुद्गल जग के सारे । नहीं गई सिणक रही भिणक समझले प्यारे ॥३॥ अब प्रभु की सेवा करो तजो पुद्गल की। तेरे सिरसे पाप की पोट जो होजाय हलकी ॥४॥
११५ -कलंगी छंद। तेने आंखों में अअन बोर अनन्ती डारे। लिये तीन लोक के आँज पदारथ सारे ॥१॥ लिये निरख जन्म अरु मरण अनन्ती बारे। सब जानत हैं पर मानत क्यों नहीं प्यारे ॥२॥ तृ तो धोवत अपनी सौ घर आंख अज्ञानी। वहुतेरे रिताए कुप खिंडाये पानी ॥३॥ कर दर्श प्रभू जी का दृष्टि हदै तेरी छल की। तेरे सिरसे पाप की पोट जो होजाय हलकी ॥४॥
११६-कलंगी छंद।
तेने कानों से सुनलई जगत की अलत कसानी। नहि सका तदपि सुन छैल मैल का पानी ॥ १॥