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सवको अभयदान तुम बांटो, जो भव के भय से भयवन्त ॥ ४ ॥ है व्याकरण विषय तुम साखा, अर्ह इति पूजाया सन्त ।
शब्द अखण्डित पूता मडित, पंडित जन मानो सब भन्त ॥ ५ ॥ वीतराग सर्वज्ञ भये तुम, तारण तरण स्वभाव धरन्त । तीरथ परम परम पुरुषोत्तम, परम गुरु सब सृष्टि कहन्त ॥ ६ ॥ ताते जल चन्दन हम अरचैं, अक्षत पुष्परु चरु दीपन्त । धूप महाफल से तुम पूजा, है त्रिकाल त्रिभुवन जैवन्त ॥ ७ ॥ सब पर दया सभी के साहिब, दास नैनसुख एम भणन्त । कर उत्कृष्ट भृष्ट मत राखो, वेग करो भव बाधा अन्त ॥ ८ ॥
७३ - रागनी ट्यौड़ी
राज की सोच न काज की सोच न, सोच नहीं प्रभु नर्कगये की ॥ टेक ॥ स्वर्ग छुटेको' सोच नहीं है, सोच नहीं तिरजंच भये को । जन्म मरण को सोच नहीं है, साच नहीं कुलनीच
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गये की ॥ १ ॥ ताड़न तापनकी सोच नहीं है, सोच नहीं तन अगिनि दहे की । सील छिदे की सोच नहीं है सोच नहीं व्रतभंग किये की ॥ २ ॥ ज्ञानलुने की सोच नहीं है सोच नहीं दुर्म्यान भये की। नयनानंद इक सोच भई अब, जिन पद भक्ति विसार दिये की ॥ ३ ॥
७४ - राग भैरवी तथा खम्माच की ठुमरी ।
डूबी पड़ी भवसागर में, मोरी नय्याकं पार उतारो महाराज ॥ टेक ॥ वीतो है अनंत काल, हवी जन्म के ज़वाल । देके अवलम्ब, निस्तागे महाराज || १ || लोभ चक्र मांहि पीर,