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[३६] क्रोध मान माया भरी । रोग द्वष मच्छ से उबारो महाराज ॥२॥ तारे धरमी अनेक, पापीहू उतारो एक । वीतराग नाम है तिहारो महागज ॥३॥ कह दास नैनसुक्ख, सेटो मेरा भव दुक्ख, खेचिके कुघाट से निकारो महाराज ॥४॥
७५-राग सारंग।
कर्मनिकी गति टारो म्वामी, कर्मनिकी गति टार ॥ टेक॥ कर्मनि ते मैं संकट पाये, गयो नर्क बहु बार ॥ १॥ कबहुँक पशु पर जाय धरी तहां, दुख पाये लद भार ॥२॥ देव मनुष गति इष्ट वियोगी, दुख को वार न पार ॥ ३॥ आयो वीतराग लखि तुमकू, राखो चरण मझार ॥ ४ ॥ लैनसुक्ख को अरज यही है, भवसागर से तार ॥ ५ ॥
७६-राग खम्माच-जंगला गज़ल ।
सुनरी सखी इक मेरी बात, आज नगर वरसैं रतन ॥ टेक ॥ लीतो है आज ऋपभ अवतार, नाभिराय घर हरष अपार । रतन जु बरसैं पंच प्रकार, शातल पवन सुधाकी भरन ॥ १॥ पुष्प वृष्टि दुंदुभि जयकार, वटत बधाई घर घर बार । आज अजुध्या नगर मझार, पूजत इंद्र प्रभू के चरन ॥२॥ सवज़ हुआ उगल गुलज़ार, बन उपवन फूले उकवार । कामिनि गाय मंगलचार, चोलत पिक दिलचस्प वचन ॥ ३ ॥ चंदन से चरचे घर बार, लटकाये सखि वंदनवार । है वोग सुख को दातार, लीजे प्रभृ का चरने शरत ॥ ४॥