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[ ३३ ] कनतें लागत है कर्मधलि अपार ॥ मन० ॥१॥ राग आस्रव मूल है, वैराग्य संवर धार। जिन न जान्यो भेद यह, वह गयो नरभव हार ॥ मन० ॥२॥ दान पूजा शील जप तप, भाव विविध प्रकार । राग विन शिव सुख करत हैं, राग” संसार ॥ ॥ मन० ॥३॥ बीतराग कहा कियो, यह बात प्रगट निहार । सोड कर सुखहेत धानत, शुद्ध अ. नुभव सार ॥ मन० ॥४॥
(६३) राग रामकली। हम न किसीके कोई न हमारा, झूठा है जगका व्योहारा ॥टेक॥ तन सम्बन्धी सब परवारा सो तन हमने जाना न्यारा ॥ हम० ॥१॥ पुन्य उदय सुखका बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सब देखन हारा ॥ ॥ हम० ॥२॥ मैं तिहुं जग तिहुं काल अकेला, पर संजोग भया बहु मेला । थिति पूरी करि खिर खिर जाहीं, मेरे हर्ष शोक कछु नाहीं ॥ हम० ॥३॥ राग भावतें सज्जन मान, दोष भावतें दुर्जन जानैं। राग दोष दोऊ मम नाहीं, द्यानत मैं चेतनपद माहीं ॥ हम० ॥४॥