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[३२] कहैं नैनसुख भवसागर से, वांह पकरि मोहि वेगि निकाल । समरथ होयहुँ मैन उवारो, तो न कहूं फिर दीनदयाल ॥ ३ ॥ ६७-कुदेवत्याग विषय-राग-ठुपरी जंगला संझौटी । मैं दरश बिना गया तरस, दरश की महिमा न जानी जीटेक में पूजे रागी देव गुरु, सेये अभिमाली जी। हिंसा में माना धरम सुनी मिथ्या मत बानी जी ॥ १ ॥ से फिरा पूजता भूत ऊन अरु सढ मसानी जी। मैं जंत्र मंत्र बहु करे मनाये नाग भवानी जी ॥२॥ मैं भैंसे बकरे भेड हते वहुतेरे प्राणी जी । नहि हुघा मनोरथ सिद्धि भये दुर्गति के दानी जी ॥३॥ मैं पढ़ लिये वेद पुगण जोग अरु भोग कहानी जी। नहीं आसा तृष्णा मरी सुगुरु की शीख न मोली जी ।।४।। मैं फिरा रसायन हेत मिली नहीं कड़ी कानी जी। नहि छुटा जन्म अरु मरन खाक बहुतेरी छानी जी ॥ ५ ॥ लई भुगत चौरासी लाख सुनी नहीं तेरी बानी जी । हुवा जन्म जन्म में ख्वार धरम को लार न जानी जी ॥६॥ तेरी वीतराग छवि देखि मेरे घट मांहि समानी जी। हो तुम ही तारण तरण तुमही हो मुक्ति निसैनी जी ॥ ७॥ है दयामई उपदेश तेरा तुम हो गुरु ज्ञानी जी। हो षटमत में परधान नैनसुखदास बखानी जी ।। ८॥
६८-राग खम्माच । लागा हमारा तोसे ध्यान, दाता भवसे निकारो मोकों जी ।टेका तुम सर्वज्ञ सकल जग नायक, केवल ज्ञान निधान ॥१॥ जीव दयामई धर्म तिहारो जी, पट मत माहिं प्रधान ॥ २ ॥