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( २२ ) का उल्लेख किया है वहाँ भी देशी शब्द का अर्थ देशीभाषा ही है। ये सब देशी या प्रादेशिक भाषाएँ भिन्न-भिन्न प्रदेशों के निवासी आये लोगों की ही कथ्य भाषाएँ थीं। इन भाषाओं का पंजाब और मध्यदेश की कथ्य भाषा के साथ अनेक अंशों में जैसे सादृश्य था वैसे किसी किसी अंश में भेद भी था। जिस जिस अंश में इन भाषाओं का पंजाब और मध्यदेश की प्राकृत भाषा के साथ भेद था उसमें से जिन भिन्न-भिन्न नामों ने और धातुओं ने प्राकृतसाहित्य में स्थान पाया है वे ही हैं प्राकृत के देशी वा देश्य शब्द ।
प्राकृत-वैयाकरणों ने इन समस्त देश्य शब्दों में अनेक नाम और धातुओं को संस्कृत नामों के और धातुओं के स्थान में आदेश-द्वारा सिद्ध करके तद्भव-विभाग में अन्तर्गत किए हैं। यही कारण है कि आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी देशीनाममाला में केवल देशी नामों का ही संग्रह किया है और देशी धातुओं का अपने प्राकृत-व्याकरण में संस्कृत धातुओं के आदेश-रूप में उल्लेख किया है; यद्यपि आचार्य हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती कई वैयाकरणों ने इनकी गणना देशी धातुओं में ही की है। ये सब नाम और धातु संस्कृत के नाम और धातुओं के आदेश-रूप में निष्पन्न करने पर भी तद्भव नहीं कहे जा सकते, क्योंकि संस्कृत के साथ इनका कुछ भी सादृश्य नहीं है।
कोई कोई पाश्चात्य भाषातत्त्वज्ञ का यह मत है कि उक्त देशी शब्द और धातु भिन्न-भिन्न देशों की द्राविड़, मुण्डा आदि अनार्य भाषाओं से लिए गए हैं। यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि यदि आधुनिक अनार्य भाषाओं में इन देशीशब्दों और देशी-धातुओं का प्रयोग उपलब्ध हो तो यह अनुमान करना असंगत नहीं है। किन्तु जबतक यह प्रमाणित न हो कि 'ये देशी शब्द और धातु वर्तमान अनार्य भाषाओं में प्रचलित हैं', तबतक 'ये देशी शब्द और धातु-प्रादेशिक आर्य भाषाओं से ही गृहीत हुए हैं' यह कहना ही अधिक संगत प्रतीत होता है। इन अनार्य भाषाओं में दो-एक देश्य शब्द और धातु प्रचलित होने पर भी 'वे अनार्य भाषाओं से ही प्राकृत भाषाओं में लिए गए हैं। यह अनुमान न कर 'प्राकृत भाषाओं से ही वे देश्य शब्द और धातु अनार्य भाषाओं में गए हैं। यह अनुमान किया जा सकता है। हाँ, जहाँ ऐसा अनुमान करना असंभव हो वहाँ हम यह स्वीकार करने के लिए बाध्य होंगे कि 'ये देश्य शब्द और धातु अनार्य भाषाओं से ही प्राकृत में लिए गए हैं। क्योंकि आई और अनार्य ये उभय जातियाँ जब एक स्थान में मिश्रित हो गई हैं तब कोई कोई अनार्य शब्द और धातु का आर्य भाषाओं में प्रवेश करना असंभव नहीं है।
डॉ. काल्डवेल (Caldwell) प्रभृति के मत में वैदिक और लौकिक संस्कृत में भी अनेक शब्द द्राविडीय भाषाओं से गृहीत हुए हैं। यह बात भी संदिग्ध ही है, क्योंकि द्राविडीय भाषा के जिस साहित्य में ये सब शब्द पाये जाते हैं वह वैदिक संस्कृत के साहित्य से प्राचीन नहीं है। इससे 'वैदिक साहित्य में ये सब शब्द द्राविडीय भाषा से गृहीत हुए हैं' इस अनुमान की अपेक्षा 'आर्य लोगों की भाषा से ही अनार्यों की भाषा में ये सब शब्द लिए गए हैं' यह अनुमान ही विशेष ठीक मालूम पड़ता है। जिन प्रादेशिक देशी-भाषाओं से ये सब देशी शब्द प्राकृत-साहित्य में गृहीत हुए हैं वे पूर्वोक्त प्रथम स्तर की
प्राकृत भाषाओं के अन्तर्गत और उनकी समसामयिक हैं। खिस्त-पूर्व षष्ठ शताब्दी के पहले ये सब समय
देशीभाषाएँ प्रचलित थीं, इससे ये देश्य शब्द अर्वाचीन नहीं, किन्तु उतने ही प्राचीन हैं जितने कि
वैदिक शब्द। द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति-वैदिक या लौकिक संस्कृत से नहीं, किन्तु
प्रथम स्तर की प्राकृतों से प्राकृत के वैयाकरण-गण प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति में प्रकृति शब्द का अर्थ संस्कृत करते हुए प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति लौकिक संस्कृत से मानते हैं । संस्कृत के कई अलंकार-शास्त्रों के टीकाकारों ने भी तद्भव और तत्सम शब्दों में स्थित
१. देखो हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण के द्वितीय पाद के १२७, १२६, १३४, १३६, १३८, १४१, १७४ वगैरह सूत्र और चतुर्थ पाद
के २, ३, ४, ५, १०, ११, १२ प्रभृति सूत्र । २, एते चान्यैदेशीषु पठिता अपि अस्माभित्विादेशीकृताः' (हे० प्रा० ४, २); अर्थात् अन्य विद्वानों ने वज्जर, पज्जर, उप्पाल प्रभृति धातुओं का पाठ देशी में किया है, तो भी हमने संस्कृत धातु के आदेश-रूप से ही ये यहीं बताए हैं।
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