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( २१ ) किया है और मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्त्र में प्राकृतचन्द्रिका के कतिपय इलों को को उद्धृत कर महाराष्ट्री, आवन्ती, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाहलीकी, मागधी, प्राच्या और दाक्षिणात्या इन आठ भाषाओं के, छह विभाषाओं में द्राविड़ और ओढ़ज इन दो विभाषाओं के, ग्यारह पिशाच-भाषाओं में काञ्चीदेशीय, पाण्डय, पाञ्चाल, गौड, मागध, वाचड, दाक्षिणात्य, शौरसेन, कैकय और द्राविड़ इन दस पिशाच-भाषाओं के. और सताईस अपभ्रंशों में ब्राचड, लाट, वैदर्भ, बार्बर, आवन्त्य, पाञ्चाल, टाक्क, मालव, कैकय, गौड, उड, हैव, पाण्ड्य, कौन्तल, सिंहल, कालिङ्ग, प्राच्य, कार्णाट, काश्च, द्राविड़, गौर्जर, आभीर और मध्यदेशीय इन तेईस अपभ्रशों के जिन नामों का उल्लेख किया है वे उस भिन्न-भिन्न देश से ही संबन्ध रखते हैं जहाँ-जहाँ बह-वह भाषा उत्पन्न हुई है। षड्भावाचन्द्रिका के कर्ता ने 'शूरसेन देश में उत्पन्न भाषा शौरसेनी कही जाती है, मगध देश में उत्पन्न भाषा को मागधी कहते हैं और पिशाच-देशों की भाषा पैशाची और चूलिकापैशाची है' यह लिखते हुए यहो बात अधिक स्पष्ट रूप में कही है। पूर्व में प्राकृत भाषाओं के शब्दों के जो तीन प्रकार दिखाए हैं उनमें प्रथम प्रकार के तत्सम शब्द संस्कृत से ही सब
देशों के प्राकृतो में लिये गए हैं। दूसरे प्रकार के तद्भव राब्द संस्कृत से उत्पन्न होने पर भी प्राकृत वैयाकरणों के मत से काल-क्रम से भिन्न-भिन्न देश में भिन्न-भिन्न रूप को प्राप्त हुए हैं और तीसरे प्रकार के देश्य शब्द तत्सम प्रादि शब्दों वैदिक अथवा लौकिक संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुए हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न देश में प्रचलित भाषाओं की प्रकृति से गृहीत हुए हैं। प्राकृत वैयाकरणों का यही मत है।
देश्य शब्द पहले प्राकृत भाषाओं का जो भौगोलिक विभाग बताया गया है, ये तृतीय प्रकार के देशोशब्द उसी भौगोलिक
विभाग से उत्पन्न हुए हैं। वैदिक ओर लोकिक संस्कृत भाषा पंजाब और मध्यदेश में प्रचलित वैदिक काल की प्राकृत भाषा से उत्पन्न हुई है। पंजाब और मध्यदेश के बाहर के अन्य प्रदेशों में उस समय
आर्य लोगों की जो प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ प्रचलित थीं उन्हीं से ये देशीशब्द गृहीत हुए हैं। यही कारण है कि वैदिक और संस्कृत साहित्य में देशीशब्दों के अनुरूप कोई शब्द (प्रतिशब्द) नहीं पाया जाता है।
प्राचीन काल में भिन्न-भिन्न प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ हयात थीं, इस बात का प्रमाण व्यास के महाभारत, भरत के नाम्यशास्त्र और वात्स्यायन के कामसूत्र आदि प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में और जैनों के ज्ञाताधर्मकथा, विपाकश्रुत, औपपातिकसत्र तथा राजप्रश्नीय आदि प्राचीन प्राकृत ग्रन्थों में भी मिलता है । इन ग्रन्थों में 'नानाभाषा', 'देशभाषा' या 'देशीभाषा' शब्द का प्रयोग प्रादेशिक प्राकृत के अर्थ में ही किया गया है। चंड ने अपने प्राकृत व्याकरण में जहाँ देशीप्रसिद्ध प्राकृत
मूल
१.ये श्लोक पैशाची' और 'अपभ्रंश' के प्रकरण में दिए गए हैं। २. “शूरसेनोद्भवा भाषा शौरसेनोति गोयते । मगधोत्पन्नभाषां तां मागधी संप्रचक्षते । पिशाचदेशनियतं पैशाचीद्वितयं भवेत् ॥” (षड्भाषाचन्द्रिका, पृष्ठ २) । ३. “नानाचर्मभिराच्छन्ना नानाभाषाश्च भारत । कुशला देशभाषासु जल्पन्तोऽन्योन्यमीश्वराः" (महाभारत, शल्यपर्व ४६, १०३)। ।
"मत ऊवं प्रवक्ष्यामि देषभाषाविकल्पनम् ।" "अथवा च्छन्दतः कार्या देशभाषा प्रयोक्तृभिः" (नाट्यशास्त्र १७, २४, ४६) । "नात्यन्तं संस्कृतेनैव नात्यन्तं देशभाषया । कथां गोष्ठीषु कथयंल्लोके बहुमतो भवेत्" (कामसूत्र १, ४, ५०)। "तते णं से मेहे कुमारे......अटारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए.......होत्या"; "तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नाम गणिया परिवसइ मड्ढा.......अद्वारसदेसीभासाविसारया" (ज्ञाताधर्मकथासूत्र, पत्र ३८६२)। 'तत्थ णं वाणियगामे कामज्झया णामं गणिया होत्या......अट्ठारसदेसीभासाविसारया" (विपाकश्रुत, पत्र २१-२२)। 'तए णं दढपइराणे दारए.......अटारसदेसाभासाविसारए" (प्रौपपातिक सूत्र, पेरा १०६)।
"तए णं से दढपतिएणे दारए.......अट्ठारसविदेसिप्पगारभासाविसारए' (राजप्रश्नीयसूत्र, पत्र १४८) । ४. "सिद्धं प्रसिद्ध प्राकृतं त्रेधा त्रिप्रकारं भवति-संस्कृतयोनि.......,संस्कृतसम........देशीप्रसिद्ध तच्चेदं हर्षितं = ल्हसिमं" (प्राकृतलक्षण
पृष्ठ १-२)।
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