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उक्त वेद-भाषा प्राचीन होने पर भी वह वैदिक युग में जन-साधारण की कथ्य भाषा न थी, ऋषि- लोगों की साहित्य-भाषा थी । उस समय जन-साधारण में वैदिक भाषा के अनुरूप अनेक प्रादेशिक भाषाएँ ( dialects) कथ्य रुप से प्रचलित थीं। इन प्रादेशिक भाषाओं में से एक ने परिमार्जित होकर वैदिक साहित्य में स्थान पाया है। ऊपर वैदिक युग से पूर्वं काल 'आए हुए प्रथम दल के जिन आयों के मध्यदेश के चारों तरफ के प्रदेशों में उपनवेशों प्राकृत भाषाओं का प्रथम का उल्लेख किया गया है उन्होंने वैदिक युग अथवा उसके पूर्व काल में अपने-अपने प्रदेशों की कध्य स्तर (खिस्त-पूर्व भाषाओं में, दूसरे दल के आर्यों की वेद-रचना की तरह, किसी साहित्य की रचना नहीं की थी। २००० से ख्रिस्तइससे उन प्रादेशिक आर्य भाषाओं का तात्कालिक साहित्य में कोई निदर्शन न रहने से उनके पूर्व ६०० ) प्राचीन रूपों का संपूर्ण लोप हो गया है। वैदिक काल की और इसके पूर्व की उन समस्त कथ्य भाषाओं को सर प्रियर्सन ने प्राथमिक प्राकृत (Primary Prākrits) नाम दिया । यही प्राकृत भाषा समूह का प्रथम स्तर (tage) है । इसका समय ख्रिस्तपूर्व २००० से ख्रिस्त - पूर्व ६०० तक का निर्दिष्ट किया गया है। प्रथम स्तर की ये समस्त प्राकृत भाषाएँ स्वर और व्यञ्जन आदि के उच्चारण में तथा विभक्तियों के प्रयोग में वैदिक भाषा के अनुरूप थीं। इससे ये भाषाएँ विभक्ति- बहुल (synthetic) कही जाती है ।
वैदिक युग में जो प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ कथ्य रूप से प्रचलित थीं, उनमें परवर्ति-काल में अनेक परिवर्तन हुए जिनमें ऋ ऋ आदि स्वरों का, शब्दों के अन्तिम व्यञ्जनों का, संयुक्त व्यञ्जनों का तथा विभक्ति और वचन-समूह का लोप या रूपान्तर मुख्य हैं। इन परिवर्तनों से ये कथ्य भाषाएँ प्रचुर परिमाण में रूपान्तरित हुई। इस तरह द्वितीय स्तर प्राकृत भाषाओं का द्वितीय (second stage) की प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति हुई । द्वितीय स्तर की ये भाषाएँ जैन और बौद्ध धर्म के प्रचार के समय से अर्थात् ख्रिस्त-पूर्व षष्ठ शताब्दी से लेकर ख्रिस्तीय नवम या दशम शताब्दी स्तर ( खिस्त-पूर्व पर्यन्त प्रचलित रहीं । भगवान् महावीर और बुद्धदेव के समय ये समस्त प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ, ६०० से खिस्ताब्द अपने द्वितीय स्तर के आकार में, भिन्न-भिन्न प्रदेशों में कथ्य भाषा के तौर पर व्यवहृत होती थीं । ६०० ) उन्होंने अपने सिद्धान्तों का उपदेश इन्हीं कथ्य प्राकृत भाषाओं में से एक में दिया था। इतना ही नहीं, बल्कि बुद्धदेव ने अपना उपदेश संस्कृत भाषा में न लिखकर कथ्य प्राकृत भाषा में लिखने के लिए अपने शिष्यों को आदेश दिया था । इस तरह प्राकृत भाषाओं का क्रमशः साहित्य की भाषाओं में परिणत होने का सूत्रपात हुआ, जिसके फलस्वरूप पश्चिम मगध और सूरसेन देश के मध्यवर्ती प्रदेश में प्रचलित कथ्य भाषा से जैनों के धर्म-पुस्तकों की अर्धमागधी और पूर्व मगध में प्रचलित लोक-भाषा से बौद्ध धर्म-ग्रन्थों की पाली भाषा उत्पन्न हुई । पाली भाषा के उत्पत्ति स्थान के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों का जो मतभेद है उसका विचार हम आगे जा कर करेंगे । ख्रिस्ताब्द से २५० वर्ष पहले सम्राट् अशोक ने बुद्धदेव के उपदेशों को भिन्न-भिन्न प्रदेशों में वहाँ-वहाँ की विभिन्न प्रादेशिक प्राकृत भाषाओं में खुदवाए । इन अशोक शिलालेखों में द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं के असंदिग्ध सर्व-प्राचीन निदर्शन संरक्षित हैं । द्वितीय स्तर के मध्य भाग में - प्रायः ख्रिस्तीय पंचम शताब्दी के पूर्व में भिन्न-भिन्न प्रदेशों की अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति हुई । इस स्तर की भाषाओं में चतुर्थी विभक्ति का, सब विभक्तियों के द्विवचनों का और आख्यात की अधिकांश विभक्तियों का लोप होने पर भी विभक्तियों का प्रयोग अधिक मात्रा में विद्यमान था । इससे इस स्तर की भाषाएँ भी विभक्ति-बहुल कही जाती हैं ।
सर प्रियर्सन ने यह सिद्धान्त किया है कि आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की उत्पत्ति द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं से, खासकर उसके शेष भाग में प्रचलित विविध अपभ्रंश भाषाओं से हुई है और आधुनिक भाषाओं को 'तृतीय तर की प्राकृत (Tertiary Prākrits) ' कह कर निर्देश किया है । इन भाषाओं की उत्पत्ति प्राकृत भाषाओं का तृतीय स्तर का समय ख्रिस्तीय दशम शताब्दी है । इनका साधारण लक्षण यह है कि इनमें अधिकांश या माधुनिक भारतीय श्रायं भाषाओं की उत्पत्ति विभक्तियों का लोप हुआ है, एवं भाषाओं की प्रकृति विभक्ति-बहुल न होकर विभक्तियों के बोधक स्वतन्त्र शब्दों का व्यवहार हुआ है। इससे ये विश्लेषणशील भाषाएँ (Analytical (खिस्ताब्द १०० ) Languages) कही जाती हैं।
जिस प्रादेशिक अपभ्रंश से जिस आधुनिक भारतीय आर्य भाषा की उत्पत्ति हुई है उसका विवरण आगे 'अपभ्रंश ' शीर्षक में दिया जायगा ।
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