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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण
___ आचार्य बाभ्रवीय का कामसूत्र वर्तमान में अनुपलब्ध है लेकिन पंडित यशोधर एवं वात्स्यायन ने अपने ग्रंथों में इनके उद्धरण दिए हैं। बाभ्रवीय के अनुसार प्रिय की सन्निकटता में काम के मुख्यत: आठ तथा विस्तार से ६४ अंग होते हैं। आठ अंग इस प्रकार हैं—१. आलिंगन २, चुम्बन, ३. नखच्छेद, ४. दशनच्छेद, ५. सह शयन, ६. सीत्कार, ७. सम्भोग, ८. मुखसम्भोग।
दक्षसंहिता में संप्राप्त और असंप्राप्त—इन दोनों ही कामों का समाहार आठों अंगों में किया गया है—१. स्मरण, २. कीर्तन, ३. क्रीड़ा, ४. स्नेह युक्त दृष्टिक्षेप, ५. गुप्त संभाषण, ६. संकल्प, ७. प्रिय-प्राप्ति के लिए अध्यवसाय, ८. क्रियानिष्पत्ति ।'
मनुस्मृति में धर्म, अर्थ और काम की सर्वश्रेष्ठता के संबंध में अनेक मतों को प्रस्थापित कर अंत में त्रिवर्ग में तीनों को श्रेष्ठ माना है। भगवान् महावीर ने धर्म को शरण, गति और प्रतिष्ठा के रूप में स्वीकार किया है तथा इसे सर्वोच्च स्थान दिया है। वर्ण-व्यवस्था एवं वर्णसंकर जातियां
वैदिक ग्रंथों में वर्ण-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके विभाजन के पीछे ऋषियों का चिन्तन था आचार और कर्म का विवेक लेकिन जब यह वर्ण-व्यवस्था अधिकार के साथ जुड़ गयी तब इसमें विकृति का प्रवेश होने लगा। जाति या वर्ण के आधार पर व्यक्ति को पशु से भी बदतर माना जाने लगा, यह मानवीय अधिकार का दुरुपयोग था। भगवान् महावीर ने जाति एवं वर्ण-व्यवस्था के विरोध में अपनी आवाज को बुलन्द किया और कर्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जातियों का निरूपण किया।
यद्यपि नियुक्तिकार ने 'मनुष्य जाति एक है' इस स्वर को बुलन्द किया है लेकिन वे अपने समकालीन तथा पूर्ववर्ती साहित्य एवं संस्कृति से बहुत प्रभावित भी रहे हैं। इसके अनेक उदाहरण नियुक्ति-साहित्य में मिलते हैं। वर्ण-व्यवस्था का जो वर्णन आचारांगनियुक्ति में मिलता है, उसमें वैदिक परम्परा का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। वर्ण-व्यवस्था एवं वर्णान्तर जाति के ऐसे भेदों का कोई उल्लेख जैन आगम-साहित्य में नहीं मिलता। ब्रह्म की व्याख्या में स्थापना ब्रह्म के अंतर्गत उस समय की प्रचलित अनेक वर्ण एवं वर्णान्तर जातियों का उल्लेख आचारांग नियुक्ति में मिलता है।
सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवें मंडल पुरुष-सूक्त में वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति का संकेत मिलता है। यजुर्वेद के अनुसार सर्वप्रथम ब्राह्मण, फिर क्षत्रिय, वैश्य और अंत में शूद्र की उत्पत्ति हुई। ऋग्वेद के अनुसार विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, ऊरु से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए। उस विराट् पुरुष के सहस्र शिर, सहस्र आंखें तथा सहस्र पैर थे तथा वह भूत और भविष्य
१. दक्षसंहिता; स्मरणं कीर्तनं केलिः, प्रेक्षणं गुह्यभाषणम्। संकल्पोऽध्यवसायश्च, क्रियानिष्पत्तिरेव च।। २. मनु. २/२२४; धर्मार्थावुच्यते श्रेय: कामार्थो धर्म एव च। अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थितिः।। ३. उ. २३/६८। ४. उ. २५/३१; कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा।। ५. यजुर्वेद ३०.५, ब्रह्मणे ब्राह्मणं,क्षत्राय राजन्यं, मरुद्भ्यो वैश्य, तपसे शूद्रम्। ६. ऋग्वेद १०/१०/१२; ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्, बाहू राजन्य: कृतः । ऊरू तदस्य यद् वैश्य: पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।।,
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