________________
४२२
नियुक्तिपंचक १३७. तीर्थंकरों ने सूत्रों में जो निदानस्थान बतलाए हैं, उनका सेवन करने वाला श्रमण आजाति को प्राप्त होता है । संदान, निदान और बंध-ये एकार्थक हैं।
१३८. (बंध के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) द्रव्य बंध के दो प्रकार हैं-प्रयोगबंध और विस्रसाबंध । प्रयोगबंध के तीन प्रकार हैं-मन का मूल प्रयोगबंध, वचन का मूल प्रयोगबंध तथा काया का मूल प्रयोगबंध। कायप्रयोग बंध के दो प्रकार हैं-मूलबंध और उत्तरबंध । शरीर और शरीरी का जो संयोगबंध है, वह मूलबंध है । वह दो प्रकार का होता है-सादि और अनादि ।
१३९. निगड़ आदि उत्तरबंध है । विस्रसाबंध सादि और अनादि दो प्रकार का होता है । जिस क्षेत्र में बंध होता है, वह क्षेत्र बंध है और जिस काल में बंध होता है, वह कालबंध है।
१४०. भावबंध के दो प्रकार हैं--जीवभावबंध और अजीवभावबंध । दोनों तीन-तीन प्रकार के हैं-विपाकज, अविपाकज तथा विपाक-अविपाकज ।
१४१. जीवभाव बंध है-कषायबंध । उसके प्रयोजन अनेक हैं । जैसे-इहलौकिक प्रयोजन पारलौकिक प्रयोजन । प्रस्तुत में पारलौकिक बंध का प्रसंग है।
१४२. जो मुनि निदान दोषों में प्रयत्नशील होता है, वह निश्चित ही आजाति को प्राप्त होता है। वह विनिपात अर्थात संसार में भ्रमण करता है। इसलिए अनिदानता ही श्रेयस्करी है।
१४३. साधु के लिए (सभी के लिए) संसार-समुद्र से तरने के ये पांच उपाय हैं१. अपार्श्वस्थता
४.अप्रमाद। २. अकुशील आचार
५. अनिदान। ३. अकषाय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org