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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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समर्पित है। ब्रह्मदत्त ने सोचा-'मैं इसके भावार्थ को कैसे जानूं?' दूसरे दिन एक परिव्राजिका आई। उसने कुमार के सिर पर अक्षत तथा फूल डाले और कहा–'पुत्र! हजार वर्ष तक जीओ।' इतना कहकर वह वरधनु को एकान्त में ले गई और उसके साथ कुछ मंत्रणा कर वापस चली गई। कुमार ने वरधनु को पूछा---' यह क्या कह रही थी?' वरधनु ने कहा-'कुमार ! उसने मुझे कहा कि बुद्धिल्ल ने जो हार भेजा था और उसके साथ जो लेख था उसका प्रत्युत्तर दो।' मैंने कहा-'वह ब्रह्मदत्त नाम से अंकित है। बताओ वह ब्रह्मदत्त कौन है?' उस परिव्राजिका ने कहा-'सुनो, लेकिन यह बात किसी को बताना मत।' उसने कहा-'इस नगरी में श्रेष्ठी-पुत्री रत्नवती रहती है। बाल्यकाल से ही मेरा उस पर अपार स्नेह है। जब वह युवती हुई तब एक दिन मैंने उसे कुछ सोचते हुए देखा। मैं उसके पास गई। मैंने कहा-'पत्री रत्नवती! क्या सोच रही हो?' उसके परिजनों ने कहा-'यह बहुत दिनों से इसी प्रकार उदासीन है।' मैंने उसे बार-बार पूछा पर वह नहीं बोली। तब उसकी सखी प्रियंगलतिका ने कहा-'भगवती ! यह लज्जावश तम्हें कछ नहीं बताएगी। मैं कहती हैं कि एक बार यह उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए गई थी। वहां इसके भाई बुद्धिल्ल श्रेष्ठी ने लाख मुद्राओं की बाजी पर कुक्कुट लड़ाए थे। इसने वहां एक कुमार को देखा। उसको देखते ही यह ऐसी बन गई।' यह सुनकर मैंने उसकी काम-व्यथा जान ली। परिव्राजिका ने स्नेहपूर्वक कहा कि पुत्री ! यथार्थ बात बताओ तब उसने ज्यों-त्यों कहा कि तुम मेरी मां के समान हो। तुम्हारे सामने अकथनीय कुछ भी नहीं है। वह ब्रह्मदत्त कुमार यदि मेरा पति नहीं होगा तो मैं निश्चय ही प्राण त्याग दूंगी। यह सुनकर मैंने उसे कहा-'धैर्य रखो। मैं वैसा ही उपाय करूंगी, जिससे तम्हारी कामना सफल हो सके।' यह बात सुनकर कुमारी रत्नवती कुछ स्वस्थ हुई। कल मैंने उसके हृदय को आश्वासन देने के लिए कहा-'मैंने कुमार को देखा है।' उसने भी कहा-'भगवती ! तुम्हारे प्रसाद से सब कुछ अच्छा ही होगा। किन्तु उसके विश्वास के लिए बुद्धिल्ल के कथन के मिष से हार के साथ ब्रह्मदत्त नामांकित एक लेख भेज देना।' मैंने कल वैसा ही किया। आगे उस परिव्राजिका ने कहा- मैंने लेख की सारी बात तुम्हें बता दी। अब उसका प्रत्युत्तर दो।' वरधनु ने कहा-'मैंने उसे यह प्रत्युत्तर दिया
बंभदत्तो वि गुरुगुणवरधणुकलिओ ति माणिउं मणई।
रयणवई रयणिवई, चंदो इव चंदणीजोगो॥ अर्थात् वरधनु सहित ब्रह्मदत्त भी रत्नवती का योग चाहता है, जैसे रजनीपति चांद चांदनी का। वरधनु द्वारा कही गई सारी बात सुनकर कुमार रत्नवती को बिना देखे ही उसमें तन्मय हो गया। उसको प्राप्त करने के उपाय सोचते-सोचते अनेक दिन बीत गए।
एक दिन वरधनु बाहर से आया और सम्भ्रान्त होता हुआ बोला-'कुमार ! इस नगर में स्वामी कौशलाधिपति ने हमें ढूंढ़ने के लिए विश्वस्त पुरुषों को भेजा है। इस नगर के स्वामी ने ढूँढना प्रारम्भ कर दिया है, ऐसा मैंने लोगों से सुना है।' यह व्यतिकर जानकर सागरदत्त ने दोनों को भोहरे में छुपा दिया। रात्रि आने पर कुमार ने सागरदत्त से कहा-'ऐसा कोई उपाय करो, जिससे हम यहाँ से निकल जाएँ।' यह सुनकर सागरदत्त उन दोनों को साथ ले नगरी के बाहर चला गया। सागरदत्त उनके साथ जाना चाहता था। परन्तु ज्यों-त्यों उसे समझा कर घर भेजा और कुमार तथा वरधनु दोनों
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