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नियुक्तिपंचक
६१. रथनेमि-राजीमती
एक सन्निवेश में ग्रामाधिपति के पुत्र का नाम धन था। मामा की पुत्री धनवती उसकी पत्नी बनी। एक बार ग्रीष्म-काल के मध्याह्न में वे किसी प्रयोजनवश अरण्य में गए। वहां उन्होंने भूखप्यास एवं परिश्रम से व्याकुल, कृश शरीर वाले एक मुनि को देखा, जो पथ भूल गए थे और मूर्च्छित से पृथ्वी पर पड़े थे। इस दयनीय अवस्था में मुनि को देखकर दम्पत्ति ने सोचा कि यह कोई
तपस्वी है। करुणा से ओत-प्रोत धन ने मुनि पर जल के छींटे डाले। उनके शरीर पर कपडे से हवा की। धन ने मुनि के शरीर का मर्दन भी किया। जब मुनि स्वस्थ हुए तब धन उन्हें अपने गांव लेकर आ गया। आहार आदि से उनकी सेवा की। मनि भी उसे उपदेश देते हए बोले-'इस दुःख प्रचुर संसार में दूसरों का हित अवश्य करना चाहिए। यदि शक्य हो तो तुम मांस, मद्य, शिकार आदि व्यसनों से निवृत्त हो जाओ क्योंकि ये दोषबहुल हैं।' मुनि ने और भी अनेक प्रकार के त्यागप्रत्याख्यान की बात कही। धन को धर्म में स्थिर करके साधु ने वहां से विहार कर दिया। वह भी साधु के द्वारा बताए अनुष्ठान का विधिपूर्वक पालन करने लगा। उसने तपस्वी के प्रति वात्सल्य से महान् पुण्य का बंध किया।
कालान्तर में धन एवं उसकी पत्नी ने यतिधर्म स्वीकार कर लिया। दिवंगत होकर धन सौधर्म देवलोक में सामानिक देव बना और उसकी पत्नी उसकी मित्र बनी। वहां दिव्य सुख का अनुभव करके देवलोक से च्यवन कर धन वैताढ्य में सूरतेज विद्याधर राजा का पुत्र बना। उसका नाम चित्रगति रखा गया। धनवती भी सूर राजा की रत्नवती कन्या बनी। कालान्तर में वह उसी की पत्नी बनी। मुनि धर्म का पालन कर चित्रगति माहेन्द्र देवलोक में सामानिक देव बना तथा उसकी पत्नी उसकी मित्र बनी। वहां से च्युत होकर वह अपराजित नाम का राजा बना और वह उसकी पत्नी बनी, जिसका नाम प्रियमती था। श्रमण धर्म का पालन कर वे आरणक कल्प में देव बने और पत्नी उसकी मित्र बनी। वहां से च्युत होकर वह शंख नामक राजा बना और वह यशोमती नाम से उसकी पत्नी बनी। शंख ने मुनि धर्म स्वीकार किया। अर्हद्-भक्ति आदि हेतु से उसने तीर्थंकर नाम गोत्र
न किया तथा अपराजित विमान में उत्पन्न हए। यशोमती भी साधधर्म का पालन करने से वहीं उत्पन्न हुई।
सोरियपुर नगर में दश दशारों में ज्येष्ठ राजा समुद्रविजय राज्य करते थे। उनकी पटरानी का नाम शिवा था। उसके चार पुत्र थे-अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि । कार्तिक कृष्णा बारस को धन का जीव शिवा रानी के गर्भ में आया। गर्भकाल में माता ने 14 महास्वप्न देखे । उचित समय पर श्रावण शुक्ला पंचमी के दिन शिवा देवी ने पत्र-रत्न को जन्म दिया। दिग-कमारियों ने जन्म-अभिषेक महोत्सव मनाया तथा राजा समुद्रविजय ने वर्धापनक समारोह का आयोजन किया। स्वप्न में रिष्ट रत्नमय नेमि देखे जाने के कारण पुत्र का नाम अरिष्टनेमि रखा गया। अरिष्टनेमि आठ वर्ष के हुए। इसी बीच कृष्ण ने कंस का वध कर दिया। महाराज जरासंध यादवों पर कुपित हो गए। जरासंध के भय से सभी यादव पश्चिमी समुद्र-तट पर चले गए। वहां केशव द्वारा आराधित
वैश्रमण देव द्वारा निर्मित, स्वर्णमयी, बारह योजन लम्बी एवं नौ योजन चौड़ी द्वारवती नगरी में वे Jain Education International For Private & Personal Use Only
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