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बंध - बन्ध । कम्मयदव्वेहि समं, संजोगो होति जो उ जीवस्स । सो बंधो नायव्वो... । जीव का कर्म - पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होना बंध है ।
(आनि. २७९ )
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बंधो णाम यदात्मा कर्मयोग्यपुद्गलानां स्वदेशैः परिणमयति परस्परं क्षीरोदकवत् तदा बंधो भवति ।
कर्मयोग्य पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीरवत् लोलीभूत हो जाना बंध है । ( उचू. पृ २१) बंभ - ब्रह्म । बृंहति बृंहितो वा अनेनेति ब्रह्मः ।
( उचू. पृ. २०७ )
जो व्यापक है अथवा जिससे व्यापकता होती है, वह ब्रह्म है । बंभण-ब्राह्मण । अट्ठारसविधो बंभं धारयतीति बंभणो ।
अठारह प्रकार के ब्रह्म को धारण करने वाला ब्राह्मण है । बहुमाण - बहुमान । भावओ नाणमंतेसु णेहपडिबंधो बहुमाणो । ज्ञानियों के प्रति अंत:करण से स्नेहप्रतिबद्धता बहुमान 1 बहुस्सुत- बहुश्रुत । परिसमत्तगणिपिडगज्झयणस्सवणेण य विसेसेण य बहुस्सुतो ।
बोक्स - बोक्कस | निसाएणं अंबट्ठीए जातो सो बोक्कसो भवति ।
निषाद पुरुष से अंबष्ठी स्त्री में उत्पन्न संतान बोक्कस कहलाती है ।
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• निसाएण सुद्दीए जातो सो वि बोक्कसो।
जो गणिपिटक - द्वादशांगी के अध्ययन और श्रवण विशेष को परिसंपन्न कर लेता है, वह बहुश्रुत कहलाता है।
(दशअचू पृ. २५६ )
निर्युक्तिपंचक
भक्ति - भक्ति । भक्ती पुण अब्भुट्ठाणाति सेवा ।
अभ्युत्थान आदि से सेवा करना भक्ति है।
भवंत - भवान्त । भवमवि चतुप्पगारं खवेमाणो भवंतो भवति ।
(दशअचू. पृ. २३४)
(आचू. पृ. ६)
निषाद पुरुष से शूद्र स्त्री में उत्पन्न संतान भी बोक्कस कहलाती है । भगव - भगवान् । अत्थ- जस-धम्म- लच्छी-रूव-सत्त-विभवाण छण्हं एतेसिं भग इति णामं, जस्स संति सो भण्णति भगवं ।
(दश अचू. पृ. ५२ )
भग के छह प्रकार हैं - अर्थ, यश, धर्म, लक्ष्मी, रूप और सत्त्व। जिसको 'भग' - वैभव प्राप्त है, वह भगवान् है ।
( उचू. पृ. ५१ )
( उचू. पृ. ९६ )
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(दशअचू. पृ. ५२)
नरक आदि चारों प्रकार के भव-संसार का क्षय करने वाला भवान्त कहलाता है ।
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(दशअचू. पृ. २३३) भवजीवित - भवजीवित । जस्स उदएण णरगादिभवग्गहणेसु जीवति जस्स य उदएण नवातो भवं गच्छति एतं भवजीवितं ।
जिस कर्म के उदय से प्राणी नरक आदि भवों में जीता है, अथवा जिस कर्म के उदय से एक भव से दूसरे भव में जाता है, वह भवजीवित कर्म है। (दशअचू. पृ. ६६ ) भवाठ - भवायु । जेण य धरति भवगतो, जीवो जेण उ भवाउ संकमई । जाणाहि तं भवाउं.... ॥ जिसके आधार पर जीव भव धारण करता • अथवा भवायुष्य संक्रमित होता है, वह भवायु है ।
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(दश अचू. पृ. ६६ )
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