Book Title: Niryukti Panchak Part 3
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 751
________________ ६२० नियुक्तिपंचक और सोने के प्रति थोड़ा भी लोभ जागृत नहीं हुआ। उसका मानस अध्यात्म से पूर्णतया आपूरित था। श्रावक की निर्लोभता और अनासक्ति से देवताओं को बहुत आश्चर्य हुआ। प्रसन्न होकर देवता ने उसे वरदान मांगने के लिए कहा। कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए श्रावक बोला-'देवानुप्रिय! मैं अब भौतिक काम-भोगों से विरत हो गया हूं अत: अब वरदान से मुझे क्या प्रयोजन है?' देवता ने प्रसन्नता से कहा कि देवदर्शन निष्फल नहीं होते। देवता ने उसे आठ सौ गुटिकाएं दीं, जो मन इच्छित वस्तुएं दे सकती थीं। श्रावक ने वे अपने पास रख ली और वहां से प्रस्थान कर दिया। कुछ दिनों पश्चात् उसने सुना कि वीतभय नगर में सर्व अलंकारों से सुशोभित देवों द्वारा अवतारित प्रतिमा है। वह उस प्रतिमा को देखने की इच्छा से वीतभय गया। कुछ दिन वहीं रहने की इच्छा से वह वहीं देवायतन में ठहर गया। किसी कारण से वह वहां रुग्ण हो गया। कृष्णगुटिका दासी वहीं रहती थी अत: उसने उसकी खूब सेवा की। श्रावक ने सोचा मैं तो दीक्षा लूंगा अतः गुटिकाओं से मेरा क्या प्रयोजन? यह सोचकर उसने कृष्णगुटिका की सेवा से प्रसन्न होकर सारी गुटिकाएं उसे देकर वहां से प्रस्थान कर दिया। दासी ने सोचा कि ये गुटिकाएं वास्तव में मनोरथ पूर्ण करने वाली हैं अथवा केवल कल्पना मात्र? उसने मन में चिंतन किया कि यदि ये प्रभावशाली हैं तो मैं उत्तप्त स्वर्ण जैसी वर्णवाली रूपवती और सुभगा नारी बन जाऊं। वह वैसी ही बन गई। लोगों ने उसके अद्भुत रूप को देवता का प्रसाद माना और उसे स्वर्णगुटिका कहने लगे। स्वर्णगुटिका को उन गुटिकाओं पर विश्वास हो गया। उसने दूसरी गुटिका मुख में रख कर चिंतन किया कि इस गुटिका के प्रभाव से राजा प्रद्योत मेरा पति बने। वीतभय से उज्जैनी नगरी केवल अस्सी योजन दूर थी। एक दिन सहसा प्रद्योत की राजसभा में कुछ अग्रणी पुरुषों ने कहा कि वीतभय नगरी में देवावतारित प्रतिमा की सेवा में रहने वाली कृष्णगुटिका दासी देवअनुग्रह से स्वर्णगुटिका बन गई है। वह अत्यन्त लावण्यवती है। उसके सौन्दर्य के पिपासु अनेक व्यक्ति है। सारी बात सुनकर प्रद्योत ने एक दूत राजा उद्रायण के पास भेजा और संदेश भिजवाया कि स्वर्णगुटिका को इस दूत के साथ भेज दो। दूत राजा उद्रायण के पास गया और स्वयं के आने का प्रयोजन बताया। उद्रायण ने दूत का तिरस्कार करके उसे वापिस भेज दिया। दूत ने सारी बात प्रद्योत को बतायी। कुछ दिनों बाद राजा प्रद्योत ने गुप्त रूप से एक दूत को स्वर्णगुटिका के पास भेजा और उसका अभिप्राय जानना चाहा। दूत ने पूछा-'यदि स्वर्णगुटिका राजा प्रद्योत से प्रेम करती है तो वह गुप्त रूप से उसके पास आ जाए।' दासी ने उत्तर दिया कि यदि देवावतारित प्रतिमा भी मेरे साथ जाए तो मैं जाने के लिए तैयार हूं अन्यथा मैं वहां नहीं जा सकती। दूत की बात सुनकर राजा प्रद्योत अनलगिरि हस्तिरत्न पर आरुढ़ होकर एक दिन में ही वीतभय नगरी पहुंच गया। प्रदोष-बेला में उसने स्वर्णगटिका से गुप्तरूप से बात की। उसी समय बसन्त महोत्सव के अवसर पर लेप्यक उत्सव मनाया गया। प्रद्योत ने उस अवसर पर एक सुन्दर मिट्टी की प्रतिमा बनवायी। गीत, नृत्य, वाद्य आदि के साथ उसने वह प्रतिमा भी देवावतारित प्रतिमा के देवालय में रखवा दी। भाग्ययोग से छलपूर्वक मिट्टी की प्रतिमा उसी मन्दिर में रख दी गयी। लोग जब ढोल आदि बजा रहे थे तब उन्हीं के सामने स्वर्णगुटिका देवप्रतिमा को बाहर ले आई। लोगों ने सोचा कि मिट्टी की प्रतिमा बाहर लायी होगी। प्रद्योत स्वर्णगुटिका और प्रतिमा दोनों का हरण करके ले गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856