________________
परिशिष्ट ६ : कथाएं
से विरक्त हो गया। वह अपने माता-पिता के पास आकर बद्धाञ्जलि बोला-'पिताजी ! मैं प्रव्रजित होना चाहता हूं। यह शरीर अनित्य है, अशुचिमय है, दु:ख और क्लेशों का भाजन है । इसे आज या कल छोड़ना ही होगा। इन काम-भोगों को मैं अभी छोड़ना चाहता हूं।'
माता-पिता ने अनेक तर्कों से उसे श्रामण्य जीवन की कठोरता से अवगत कराया। लेकिन जब उन्होंने देखा कि इसका संकल्प दृढ़ है तो उन्होंने कहा-'पुत्र! तुम धन्य हो, जो सुख-सामग्री की विद्यमानता में विरक्त बने हो। तुम सिंह की भांति अभिनिष्क्रमण कर सिंह-वृत्ति से ही श्रामण्य का पालन करना। धर्म की कामना रखते हुए कामभोगों से विरक्त होकर विहरण करना। वत्स! तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम, नियम, क्षांति, मुक्ति आदि से सदा वर्धमान रहना।' संवेगजनित हर्ष, से बलश्री ने माता-पिता के आशीर्वाद को स्वीकार किया। पवित्रता से श्रामण्य का पालन किया और अंत में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बन गया।' ६०. समुद्रपाल
चंपा नगरी में पालित नामक सार्थवाह रहता था। वह वीतराग भगवान महावीर का अनुयायी था। निर्ग्रन्थ प्रवचन में उसकी दृढ़ श्रद्धा थी। वह सामुद्रिक व्यापारी था अतः दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। एक बार वह यानपात्र पर आरूढ़ होकर घर से निकला। वह गणिम-सुपारी तथा धरिम-स्वर्ण आदि से भरे जहाज को लेकर पिहुंड नगर पहुंचा। क्रय-विक्रय हेतु वह वहां कई दिनों तक रहा। नगरवासियों से उसका परिचय बढ़ा और एक सेठ ने अपनी पुत्री के साथ उसका विवाह कर दिया।
__कुछ दिन वहां रहकर वह पत्नी को लेकर स्वदेश की ओर चल पड़ा। उसकी पत्नी गर्भवती हुई। समुद्र-यात्रा के बीच ही उसने एक सुन्दर और लक्षणोपेत बालक को जन्म दिया। समुद्र में जन्म लेने के कारण उसका नाम समुद्रपाल रखा गया। पालित श्रावक सकुशल अपने घर पहुंचा। शिशु समुद्रपाल पांच धायों के बीच बड़ा होने लगा। उसने बहत्तर कलाएं सीखीं। वह न्याय-नीति में निपुण हो गया। यौवन में प्रवेश कर वह अत्यधिक सुन्दर दिखाई देने लगा। युवावस्था में पिता ने रूपिणी नामक कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। वह स्त्रियों के चौंसठ गुणों से युक्त तथा देवांगना के समान सुन्दर थी। समुद्रपाल रूपिणी के साथ पुंडरीक भवन में क्रीड़ारत रहता था। एक बार वह प्रासाद के गवाक्ष में बैठा नगर की शोभा देख रहा था। उसने देखा कि राजपुरुष एक वध्य को वधभूमि में ले जा रहे हैं। वह व्यक्ति लाल वस्त्र पहने हुए था। उसके गले में लाल कनेर की मालाएं थीं। यह सब देख कुमार का मन संवेग से भर गया। 'अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है।' इस चिंतन से उसका मार्ग स्पष्ट हो गया। संबोध प्राप्त कर समुद्रपाल उत्कृष्ट वैराग्य से संपृक्त हो गया। प्रख्यात यश-कीर्ति वाले उस कुमार ने माता-पिता की आज्ञा लेकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। अनेक वर्षों तक तपश्चर्या द्वारा कर्मों का क्षय कर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया। १. उनि.४०२-४१५।
२. उनि.४२५-३६।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org