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नियुक्तिपंचक
कुमार ने अपनी पारिणामिकी बुद्धि से जान लिया कि राजकुमार आर्द्रक भव्य और निकट भविष्य में मुक्ति जाने वाला है। अभय ने सोचा-'वह मेरे साथ मित्रता करना चाहता है अतः मेरा परम कर्तव्य है कि मैं उसकी मुक्तिगमन योग्यता को उजागर करने जैसा उपहार भेजूं।' अभयकुमार ने आदि-तीर्थंकर भगवान् ऋषभ की प्रतिमा बनवाई। उसे एक बहुमूल्य मंजूषा में रखकर अन्यान्य और भी उपहार दूत को देकर अभयकुमार ने कहा-'तुम्हारे राजकुमार से कहना कि इस मंजूषा को एकान्त में खोले। लोगों के समक्ष न खोले।'दत उपहार लेकर आर्द्रक नगर पहंचा। राजा आर्द्रक को सारे उपहार दिए और श्रेणिक का संदेश सुनाया। राजा ने उसको सत्कारित किया। दूसरे दिन राजकुमार आर्द्रक के पास गया और अभयकुमार द्वारा प्रेषित उपहार और मंजूषा देते हुए अभय का संदेश सुना दिया। उसने भी दूत का सत्कार करके उसे विदा किया। राजकुमार आर्द्रक मंजूषा लेकर महलों में ऊपर गया। वहां लोगों को विसर्जित करके एकान्त में मंजूषा को खोला। आर्द्रक कुमार मंजूषा में ऋषभदेव की प्रतिमा को देखकर सोचने लगा-'ओह ! यह रूप तो मैंने पहले कभी देखा है।' चिंतन करते-करते उसे जाति-स्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने सोचा कि अभयकुमार ने मुझ पर परम उपकार किया है। मुझे धर्म का सही प्रतिबोध दिया है। आर्द्रक कुमार के मन में संवेग उत्पन्न हो गया। उसने सोचा- 'मैं देव था तब मनोनुकूल भोग-सामग्री उपलब्ध थी फिर भी मन की तृप्ति नहीं हुई। देवता के भोगों के समक्ष मनुष्य के कामभोग तुच्छ और अल्पकालिक हैं अत: मुझे इनमें आसक्त नहीं होना है।'
राजकुमार आर्द्रक संसार से विरक्त हो गया। वह संसार में रहते हुए भी विरक्त जीवन जीने लगा। राजा को जब राजकुमार के विरक्त जीवन की बात ज्ञात हुई तो उसने परिचारकों से इसका कारण पूछा। उन्होंने कहा-'राजन् ! जब से राजकुमार अभय कुमार द्वारा प्रेषित उपहार कुमार को प्राप्त हुए हैं तभी से वे विरक्ति का जीवन जी रहे हैं।' राजा उद्विग्न हो गया। उसने सोचा कहीं राजकुमार घर से पलायन न कर जाए। राजा ने पांच सौ कुमारामात्य पुत्रों को राजकुमार के संरक्षण का भार सौंप दिया और कहा-'तुम पर राजकुमार के संरक्षण का दायित्व है। यदि वह कहीं पलायन कर गया तो तुम सबको मृत्युदंड दूंगा।' वे सब राजकुमार की सेवा और संरक्षण करने लगे।
आर्द्रक कुमार का मन घर से विरक्त हो चुका था। वह पलायन करके अभिनिष्क्रमण करना चाहता था। उसने उपाय खोजा। एक दिन अश्ववाहनिका का बहाना बनाकर अपने रक्षक पांच सौ साथियों के साथ घूमने निकल पड़ा। बहुत दूर जाकर उसने अपने घोड़े को दूसरी दिशा में मोड़ दिया। जब पांच सौ कुमारामात्य रक्षकों को ज्ञात हुआ तो वे उसकी खोज में निकले पर वे उसे खोज नहीं पाए। आर्द्रक नगर से पलायन कर आर्द्रककुमार प्रव्रजित होने के लिए उद्यत हुआ। मित्र देव ने कहा कि अभी दीक्षा मत लो क्योंकि उपसर्ग उपस्थित हो सकते हैं। राजकुमार आर्द्रक ने देवता की बात पर ध्यान नहीं दिया और दीक्षा ग्रहण कर ली।
एक बार वह विहार करते-करते बसन्तपुर नगर में आया और साधु-प्रतिमा का पालन करते हुए कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। एक सेठ की पुत्री अपनी सहेलियों के साथ उद्यान में क्रीड़ा कर
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