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नियुक्तिपंचक
आगे चले गये। वे नगर के बाहर उद्यान में पहुँचे। उसमें एक यक्षायतन था। वहाँ वृक्ष के नीचे एक रथ खड़ा था। वह शस्त्रों से सज्जित था। उसके पास एक सुन्दर स्त्री बैठी थी। कुमार को देखकर वह उठी और आदर-भाव प्रकट करती हुई बोली-'आप इतने समय के बाद कैसे आए?' यह सुनकर कुमार ने कहा-'भद्रे ! हम कौन हैं?' उसने कहा-'स्वामिन् ! आप ब्रह्मदत्त और वरधनु हैं।' कुमार ने कहा-'तुमने हमको कैसे जाना'? उसने कहा-'सुनो, इस नगरी में धनप्रवर नाम का सेठ रहता है। उसकी पत्नी का नाम धनसंचया है। उसके आठ पुत्र हैं। मैं उनकी नौंवीं संतान हूँ। मैं युवती हुई पर मुझे कोई पुरुष पसन्द नहीं आया है। तब मैंने इस यक्ष की आराधना प्रारम्भ की। यक्ष भी मेरी भक्ति से संतुष्ट हुआ। वह प्रत्यक्ष दर्शन देकर बोला-'बेटी! भविष्य में होने वाला चक्रवर्ती कुमार ब्रह्मदत्त तुम्हारा पति होगा। मैंने पूछा-'मैं उसको कैसे जान सकूँगी?' यक्ष ने कहा-'बुद्धिल्ल और सागरदत्त के कुक्कुट-युद्ध में जिस पुरुष को देखकर तुम्हें आनन्द हो, उसे ही ब्रह्मदत्त जान लेना।' उसने मुझे जो बताया, वह सब यहाँ मिल गया। मैंने जो हार आदि भेजा, वह आप जानते ही हैं।' यह सुनकर कुमार उसमें अनुरक्त हो गया। वह उसके साथ रथ पर आरूढ हुआ और उससे पूछा-'हमें कहाँ जाना चाहिए?' रत्नवती ने कहा-'मगधपुर में मेरे चाचा सेठ धनसार्थवाह रहते हैं। वे हमारा वृत्तान्त जान कर हमारा आगमन अच्छा मानेंगे। अत: आप वहीं चलें, उसके बाद जहाँ आपकी इच्छा हो।' रत्नवती के वचनानुसार कुमार मगधपुर की ओर चल पड़ा। वरधनु को सारथि बनाया।
___ग्रामानुग्राम चलते हुए वे कौशाम्बी जनपद को पार कर गए। आगे चलते हुए वे एक गहन जंगल में जा पहुंचे। वहां कंटक और सुकंटक नाम के दो चोर-सेनापति रहते थे। उन्होंने रथ और उसमें बैठी हुई अलंकृत स्त्री को देखा। उन्होंने यह भी जान लिया कि रथ में तीन ही व्यक्ति हैं। वे सज्जित होकर आए और उन पर प्रहार करने लगे। कुमार ने भी अनेक प्रकार से प्रहार किए। चोर सेनापति हार कर भाग गया। कुमार ने रथ को आगे बढ़ाया। वरधनु ने कहा-'कुमार ! तुम बहुत परिश्रान्त हो गए हो। कुछ समय के लिए रथ में ही सो जाओ।' कुमार और रत्नवती दोनों सो गए। रथ आगे बढ़ रहा था। वे एक पहाड़ी प्रदेश में पहुंचे। घोड़े थककर एक पहाड़ी नदी के पास जाकर रुक गये। कुमार जागा, वह जम्भाई लेकर उठा। उसने आस-पास देखा पर वरधनु दिखाई नहीं दिया। कुमार ने सोचा-'संभव है वह पानी लाने गया हो।' कुछ देर बाद उसने भयाक्रान्त हो वरधन को पुकारा। उसे प्रत्युत्तर नहीं मिला। उसने रथ के अगले भाग को देखा। वह रक्त से सना हुआ था। कुमार ने सोचा कि वरधनु मारा गया। 'हा! मैं मारा गया। अब मैं क्या करूं?' यह कहते हुए वह रथ में ही मूर्च्छित हो गया। कुछ समय बीतने पर उसे होश आया। 'हा, हा भ्रात वरधनु !' यह कहता हुआ वह प्रलाप करने लगा। रत्नवती ने ज्यों-त्यों उसे बिठाया और समझाया। कुमार ने कहा-'सुन्दरी ! मैं स्पष्ट नहीं जान पा रहा हूँ कि वरधनु मर गया या जीवित है? मैं उसको ढूंढ़ने के लिए पीछे जाना चाहता हूँ। रत्नवती ने कहा-'आर्यपुत्र ! यह पीछे चलने का अवसर नहीं है। मैं एकाकिनी हूँ। यहां भयंकर जंगल है। इसमें अनेक चोर और श्वापद रहते हैं। यहाँ की सारी घास पैरों से रौंदी हुई है इसलिए यहां पास में ही कोई बस्ती होनी चाहिए।' कुमार ने उसकी बात
मान ली। वह मगध देश की ओर चल पड़ा। वह उस देश की सन्धि में संस्थित एक ग्राम में पहुँचा। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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