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परिशिष्ट ६ : कथाएं
ग्राम सभा में बैठे हुए ठाकुर ने कुमार को प्रवेश करते हुए देखा। उसे विशेष व्यक्ति मानकर वह उठा । उसका सम्मान किया और अपने घर ले गया। उसने ब्रह्मदत्त को रहने के लिए मकान दिया। जब वह सुखपूर्वक बैठ गया तब ठाकुर ने कुमार से कहा - 'महाभाग ! तुम बहुत ही उद्विग्न दिखाई दे रहे हो। क्या कारण है?' कुमार ने कहा- 'मेरा भाई चोरों के साथ लड़ता हुआ न जाने कहाँ चला गया? किस अवस्था को प्राप्त हो गया?' ठाकुर ने कहा- 'आप खेद न करें। यदि वह इस अटवी में होगा तो अवश्य ही मिल जाएगा।' ठाकुर ने विश्वस्त आदमियों को अटवी में चारों ओर भेजा। वे आकर बोले- 'स्वामिन्! हमें अटवी में कोई खोज नहीं मिली।' केवल एक बाण ही मिला है । यह सुनते ही कुमार अत्यन्त उद्विग्न और उदास हो गया। उसने सोचा- 'निश्चय ही वरधनु मारा गया है।' रात आने पर कुमार रत्नवती के साथ सो गया। एक प्रहर रात बीतने पर गांव में चोर घुसे। वे लूट-खसोट करने लगे। कुमार ने चोरों का सामना किया। सभी चोर भाग गये। गाँव के प्रमुख ने कुमार का अभिनन्दन किया। प्रातः काल होने पर ठाकुर ने अपने पुत्र को उनके साथ
भेजा ।
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वे चलते-चलते राजगृह पहुंचे। नगर के बाहर एक परिव्राजक का आश्रम था । कुमार रत्नवती को आश्रम में बिठाकर गाँव के अन्दर गया। प्रवेश करते ही उसने अनेक खम्भों पर टिका हुआ, अनेक कलाओं से निर्मित एक धवल भवन देखा । वहाँ दो सुन्दर कन्याएं बैठी थीं । कुमार को देखकर अत्यन्त अनुराग दिखाती हुई वे दोनों बोलीं- 'क्या आप जैसे महापुरुषों के लिए यह उचित है कि भक्ति से अनुरक्त व्यक्ति को भुलाकर परिभ्रमण करते रहो ?' कुमार ने कहा- 'वह कौन है, जिसके लिए तुम ऐसा कह रही हो? उन्होंने कहा - ' कृपा कर आप आसन ग्रहण करें।' कुमार आसन पर बैठ गया । स्नान कर वह भोजन से निवृत्त हुआ। दोनों स्त्रियों ने कहा - 'महासत्व ! इसी भरत के वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिवमन्दिर नाम का नगर है । वहाँ ज्वलनसिंह नाम का राजा राज्य करता है। उसकी महारानी का नाम विद्युतशिखा है। हम दोनों उनकी पुत्रियाँ हैं । हमारे ज्येष्ठ भ्राता का नाम नाट्योन्मत्त था । एक दिन हमारे पिता अग्निशिख मित्र के साथ गोष्ठी में बैठे थे। उन्होंने आकाश की ओर देखा । अनेक देव तथा असुर अष्टापद पर्वत के अभिमुख जिनेश्वर देव को वन्दनार्थ जा रहे थे। राजा भी अपने मित्र तथा बेटियों के साथ उसी ओर जाने लगा। हम सब अष्टापद पर्वत पर पहुंचे, जिनदेव की प्रतिमाओं को वन्दना की और सुगन्धित द्रव्यों से अर्चा की। हम तीन प्रदक्षिणा कर लौट रहे थे तभी हमने देखा कि एक अशोक वृक्ष के नीचे दो मुनि खड़े हैं। वे चारणलब्धि सम्पन्न थे । हम उनके पास वन्दना कर बैठ गए। उन्होंने धर्मकथा करते हुए कहा - 'यह संसार असार है। शरीर विनाशशील है। जीवन शरद् ऋतु के बादलों की तरह नश्वर है । यौवन विद्युत् के समान चंचल है। कामभोग किंपाक फल जैसे हैं । इन्द्रियजन्य सुख संध्या के राग की तरह हैं। लक्ष्मी कुशाग्र पर टिके हुए पानी की बूंद की तरह चंचल है। दुःख सुलभ है, सुख दुर्लभ है। मृत्यु सर्वत्रगामी है। ऐसी स्थिति में प्राणी को मोह का बंधन तोड़ना चाहिए। जिनेन्द्र प्रणीत धर्म में मन लगाना चाहिए।' परिषद् ने धर्मोपदेश सुना। लोग विसर्जित हुए । अवसर देख अग्निशिख ने पूछा- 'भगवन् ! इन बालिकाओं का पति कौन होगा ।' मुनि ने कहा-' इनका पति भ्रातृ-वधक होगा।' यह सुन राजा का चेहरा श्याम हो गया। हमने पिता से कहा- 'तात ! मुनियों
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