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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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(ग) राजा के निर्गमन काल में एक शंखवादक ने शंख बजाया। अवसर पर शंख बजाया है' यह सोचकर राजा ने प्रसन्न होकर उसे एक हजार मुद्राएं दीं। अब वह बार-बार शंख बजाने लगा। एक बार राजा ने विरेचन की दवा ली। वह मल-विसर्जन के लिए गया हुआ था। शंखवादक ने शंख बजाया। राजा ने सोचा कि शत्रु-सेना ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया है। राजा मल-विसर्जन के वेग के कारण उठ नहीं सका। उसका मन खिन्न हो गया। वहां से उठने के बाद राजा ने अकारण शंख बजाने के कारण उस शंखवादक को दंडित किया।
(घ) एक वृद्धा ने व्यंतर देव की आराधना की। कंडों को उलटते हुए उसको रत्न प्राप्त हुए। वह समृद्ध हो गयी। उसने चतुःशाल घर बनवाया और उसमें अनेक शयन, आसन और रत्न आदि भर दिए। पड़ोसी वृद्धा ने जब यह सुना तो उसने समृद्धि का कारण पूछा। उसने यथार्थ स्थिति बता दी। उस पड़ोसी वृद्धा ने भी व्यंतर देव की आराधना की। देव प्रकट हुआ और पूछा-'तुम्हें क्या दूं?' उस वृद्धा ने कहा- 'मुझे यह वर दें कि मेरे पास पड़ोसिन से दुगुना हो जाए। पहली वृद्धा जो-जो सोचती दूसरी के दुगुना होता जाता। प्रथम स्थविरा ने जब यह सुना कि वरदान के कारण पड़ोसिन के सब दुगुना होता जाता है तो उसने सोचा कि मेरा चतु:शाल भवन नष्ट हो जाए और उसके स्थान पर घास-फस की कटिया बन जाए। दूसरी पडोसिन के दो चत:शाल घर नष्ट हो गएं
और उसके स्थान पर दो तृण-कुटिया हो गयीं। पहली ने सोचा कि मेरी एक आंख फूट जाए। उसकी एक आंख फूट गई और दूसरी की दोनों आंखें फूट गयीं। इसी प्रकार उसने देव से कहा-'मेरा एक हाथ और एक पैर टूट जाए।' देव ने कहा- 'तथास्तु'। पड़ोसिन के दोनों हाथ और पैर टूट गए। यह असंतोष का फल है।
२८. भक्ति और बहुमान
एक गिरि-कंदरा में शिव की मूर्ति थी। ब्राह्मण और भील-दोनों उसकी पूजा-अर्चा करते थे। ब्राह्मण प्रतिदिन स्नान आदि कर, पवित्र होकर अर्चना करता था। अर्चना के पश्चात् वह शिव के सम्मुख बैठकर शिवजी का स्तुति-पाठ कर चला जाता। उसमें शिव के प्रति विनय था, बहुमान नहीं। वह भील शिव के प्रति बहुमान रखता था। वह प्रतिदिन मुंह में पानी भर लाता और उससे शिव को स्नान करा. प्रणाम कर वहीं बैठ जाता। शिव प्रतिदिन उसके साथ बातचीत करते। एक बार ब्राह्मण ने दोनों का आलाप-संलाप सुन लिया। उसने शिव की पूजा कर उपालंभ भरे शब्दों में कहा–'तुम भी व्यन्तर शिव हो, जो ऐसे गंदे व्यक्ति के साथ आलाप-संलाप करते हो।' तब शिव ने ब्राह्मण से कहा-'भील में मेरे प्रति बहुमान-आंतरिक प्रीति है, वह तुम्हारे में नहीं है।'
एक बार शिव ने अपनी आंखें निकाल ली। ब्राह्मण अर्चा करने आया। शिव के आंखें न देखकर वह रोने लगा और उदास होकर वहीं बैठ गया। इतने में ही भील आ पहुंचा। शिव की आंखें न देखकर उसने तीर से अपनी दोनों आंखें निकाल कर शिव के लगा दी। ब्राह्मण ने यह देखा। उसे शिव की बात पर पूरा विश्वास हो गया कि भील में बहुमान का अतिरेक है। .
३. दशनि.१५८, अचू.पृ. ५२, हाटी.प. १०४।
१. दशनि.१५८, अचू.पृ. ५२। .
२. दशनि.१५८, अचू.पृ. ५२। Jain Education International
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