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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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तो नहीं है?' मुनियों ने उत्तर दिया--'भंते ! उज्जयिनी में राजपुत्र और पुरोहितपुत्र-दोनों मुनियों को बहुत कष्ट देते हैं।' आचार्य राध के प्रव्रजित युवराज शिष्य ने भी यह बात सुनी। उज्जयिनी का राजपुत्र उसका भतीजा था। उसने सोचा-'वह इस दुष्प्रवृत्ति से संसार में भ्रमण करेगा इसलिए उसे इससे मुक्त करना चाहिए।' यह सोचकर वह आचार्य से आज्ञा प्राप्त कर उन दोनों को प्रतिबोध देने के लिए उज्जयिनी की ओर प्रस्थित हो गया। वह उज्जयिनी पहुंचा। आचार्य राध श्रमण ने अतिथि मुनि का स्वागत किया। भिक्षा के समय वह भिक्षाचर्या के लिए तत्पर हुआ। आचार्य बोले'बैठो।' उसने कहा-'मझे उन दोनों प्रत्यनीकों का घर बता दें।' आचार्य ने एक क्षुल्लक को मुनि के साथ भेजा। क्षुल्लक ने उन दोनों का घर बता दिया। मुनि विश्वस्त होकर घर में प्रविष्ट हुए। वहां राज-परिजन विस्मित होकर खड़े हुए और मुनि को देखकर बोले-'मुने ! आप शीघ्र ही यहां से निकल जाइए अन्यथा कुमार आपकी हंसी करेंगे, अपमान करेंगे। मुनि ने नि:संकोच भाव से बाढ़स्वर में धर्मलाभ' का उच्चारण किया। राजपुत्र और मंत्रिपुत्र दोनों ने यह शब्द सुना। वे बोले'अहो ! आज हमारे अहोभाग्य कि तुम जैसे मुनि हमारे घर आ गए। हमारी वंदना स्वीकार करो। 'मुने ! क्या तुम नाचना जानते हो?' मुनि बोले-'हां, मैं नाचना जानता हूं, तुम वाद्य बजाओ।' वे वाद्य बजाने लगे पर वे बजाना नहीं जानते थे। मुनि बोले- 'ऐसे ही ढोंगी हो तुम, बजाना भी नहीं जानते।' यह सुनकर दोनों कुपित हो गए। वे दोनों उस पर प्रहार करने दौड़े। मुनि ने उन दोनों के शरीर के संधि-स्थलों को क्षुभित कर दिया। पहले उन दोनों की पिटाई की। पीटे जाने पर वे दोनों जोर-जोर से चिल्लाने लगे। अनेक परिजन इकट्ठे हो गए।
मुनि के जाने के बाद परिजनों ने देखा कि वे दोनों न तो जीवित हैं और न मृत। उनकी दृष्टि स्थिर है। राजा को सारा वृत्तान्त ज्ञात हुआ। राजा ने दोनों को मुक्त कर दिया। फिर राजा अपनी सेना के साथ मुनियों के पास आया। वह मुनि भी एक ओर बैठा-बैठा आगमों का परावर्तन कर रहा था। राजा ने आचार्य के चरणों में प्रणिपात कर प्रार्थना के स्वरों में कहा-'भगवन् ! आप कृपा करें।' आचार्य बोले- 'मैं कुछ भी नहीं जानता। यहां एक अतिथि मुनि आया है, संभव है यह उसी का काम हो।' राजा उस मुनि के पास गया और उसे पहचान लिया। मुनि ने ओजस्वी वाणी में राजा से कहा-'तुमको धिकार है। राजा होकर भी तुम अपने पुत्र पर अनुशासन नहीं कर सके।' राजा
दि दोनों प्रव्रजित हो जाएं तो मुक्त हो सकते हैं।' यह सुनकर राजा और पुरोहित दोनों ने दीक्षा की अनुमति दे दी। जब दोनों स्वस्थ हो गए तो दीक्षा के बारे में पूछने पर वे सहर्ष तैयार हो गए। पहले उन दोनों का लोच किया फिर उनको मुक्त करके दीक्षित किया। दीक्षित होकर राजपुत्र शुद्धभाव से चारित्र पालन करने लगा। पुरोहितपुत्र को जाति का मद था। वह सोचता था कि हमें बलात् दीक्षित किया गया है। फिर भी संयम-जीवन यापन कर वे दोनों देवलोक में उत्पन्न हुए।
उस समय कौशाम्बी नगरी में तापस नामक सेठ रहता था। वह मरकर अपने ही घर सूअर की योनि में उत्पन्न हुआ। शूकर के भव में उसे जातिस्मृति ज्ञान हो गया। सेठ के पुत्रों ने उसी दिन उस सूअर को मार दिया। वह पुनः अपने ही घर में सर्प के रूप में पैदा हुआ। सांप के भव में भी
उसे जातिस्मृति ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। सांप किसी को डस न ले इसलिए उसे मार डाला गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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