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निर्युक्तिपंचक
व्यर्थ हो गए। तांत्रिकों और यांत्रिकों के प्रयास भी निष्फल हो गए। राजा विचलित हो गया । यक्ष ने कहा - 'इस कुमारी ने एक तपस्वी मुनि का तिरस्कार किया है। यदि यह उस तपस्वी के साथ पाणिग्रहण करना स्वीकार कर ले तो मैं इसे छोड़ सकता हूं, अन्यथा नहीं।' लाचार होकर राजा ने यक्ष की बात स्वीकार कर ली। महत्तरिकाओं के साथ अपनी पुत्री भद्रा को अलंकारों से विभूषित करके यक्षायतन में भेज दिया। रात्रि में महत्तरिकाओं ने भद्रा से कहा- 'जाओ, अपने पति के पास' । भद्रा यक्षायतन में प्रविष्ट हुई। मुनि ने ध्यान संपन्न किया और भद्रा को स्वीकार न करने की अपनी मर्यादा बताई।
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यक्ष ने मुनि का रूप बनाया और राजकन्या के साथ पाणिग्रहण किया। उसने मुनि को आच्छन्न कर कभी दिव्यरूप और कभी मुनिरूप बनाकर उसे ठगा । वह रात भर उस कन्या के साथ ऐसे ही विडम्बना करता रहा । प्रभात में यक्ष दूर हुआ और मुनि ने सही-सही बात कन्या से कही । वह दु:खी मन से राजा के पास गई और यक्ष द्वारा ठगे जाने की बात बताई । राजा के पास बैठे पुरोहित रुद्रदेव ने कहा- 'राजन् ! यह ऋषि पत्नी है। मुनि द्वारा परित्यक्त है अत: इसे किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। राजा ने उसी पुरोहित को कन्या सौंप दी। कुछ समय बाद पुरोहित रुद्रदेव ने यज्ञ किया। भद्रा को यज्ञपत्नी बनाया गया। दूर-दूर से विद्वान् ब्राह्मण और विद्यार्थी बुलाए गए। उन सबके आतिथ्य के लिए प्रचुर भोजन-सामग्री एकत्रित की गयी। उस समय मुनि हरिकेशबल एक-एक मास का तुप कर रहे थे। पारणे के दिन वे भिक्षा के लिए घर-घर घूमते हुए उसी यज्ञ मंडप में जा पहुंचे। उसके बाद मुनि और ब्राह्मणों में जो वार्तालाप हुआ, वह उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन में संकलित है।
५५, ५६. चित्र - संभूत
साकेत नगर में चन्द्रावतंसक राजा का पुत्र मुनिचन्द्र राज्य करता था। राज्य का उपभोग करते-करते उसका मन विरक्त हो गया। उसने मुनि सागरचंद्र के पास दीक्षा ग्रहण की। वह अपने गुरु के साथ देशान्तर जा रहा था। रास्ते में वह भिक्षा लेने गांव गया पर सार्थ से बिछुड़ गया और एक भयानक अटवी में जा पहुंचा। भूख और प्यास से व्याकुल मुनि को चार ग्वालपुत्रों ने देखा । उनका मन करुणा से भर गया । उन्होंने मुनि की परिचर्या की। मुनि ने स्वस्थ होकर चारों ग्वालपुत्रों को धर्म का उपदेश दिया। चारों बालक प्रतिबुद्ध हुए और मुनि के पास दीक्षित हो गए। वे सभी आनंद से दीक्षा - पर्याय का पालन करने लगे। किन्तु उनमें से दो मुनियों के मन में मैले कपड़ों के विषय में जुगुप्सा रहने लगी। चारों मरकर देवगति में गए। जुगुप्सा करने वाले दोनों मुनि देवलोक से च्युत हो दशपुर नगर में शाण्डिल्य ब्राह्मण की दासी यशोमती की कुक्षि से युगल रूप में जन्मे । क्रमश: वे युवा हुए।
एक बार वे जंगल में अपने खेत की रक्षा के लिए गए। रात को वे एक वटवृक्ष के नीचे सो गए। अचानक ही वृक्ष की कोटर से एक सर्प निकला और एक को डस कर चला गया। दूसरा जागकर तत्काल ही उस सर्प की खोज में निकल पड़ा। वही सर्प उसे भी डस गया। दोनों मरकर
१. उनि ३१३-२१, उशांटी प. ३५५-५७, उसुटी प. ९७३ - १७५ ।
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