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निर्युक्तिपंचक
वह अपने प्रयत्न में सफल नहीं हो सका। आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र अर्थपौरुषी कर रहे थे । गोष्ठामाहिल उसे नहीं सुनता और लोगों से कहता - 'जाओ, निष्पावकुट वाले आचार्य से सुनो।' आचार्य जब अर्थपौरुषी सम्पन्न कर देते तब मुनि विन्ध्य उनके पश्चात् प्रवचन करता । वह आठवें पूर्व कर्मप्रवाद के आधार पर कर्म का विवेचन करते हुए कर्म और जीव का संबंध कैसे-कैसे होता है - इस पर प्रकाश डाल रहा था । जीव के साथ कर्म का संबंध तीन प्रकार का होता है-बद्ध स्पृष्ट और निकाचित । बद्ध जैसे तंतु से बंधा हुआ सूची - समूह । स्पृष्ट जैसे- घन से कूट कर एक किया हुआ सूचीकलाप तथा निकाचित जैसे सूचीकलाप को तपाकर, बन से पीटकर एक कर देना । इसी प्रकार जीव राग-द्वेष से कर्मबंध करता है । वह अपने इस राग-द्वेष के परिणाम को न छोड़कर उन्हें स्पृष्ट कर लेता है तथा उन्हीं संक्लिष्ट परिणामों से उन्हें निकाचित कर लेता है। निकाचित कर्म निरुपक्रम उदय से संवेदित होता है, अन्यथा उसका वेदन नहीं होता। यह सुनकर गोष्ठामाहिल बोला-'ऐसा नहीं होता। हमने ऐसा कभी नहीं सुना। यदि कर्म इस प्रकार बद्ध, स्पृष्ट और निकाचित होते हैं तो मोक्ष कभी नहीं होगा।' उससे पूछा- 'आप बताएं यह कैसे होता है?' गोष्ठामाहिल बोला- 'सुनो, केंचुली जैसे केंचुली पहने पुरुष का स्पर्श करती है, किन्तु वह शरीर से आबद्ध नहीं है। इसी प्रकार कर्म भी जीव- प्रदेशों के साथ स्पृष्ट हैं, बद्ध नहीं। जिसके कर्म बद्ध हैं, उसके कर्मों की व्युच्छित्ति कभी नहीं होगी । आचार्य ने हमें इतना ही बताया है। यह मुनि विन्ध्य इसे नहीं जानता ।' तब मुनि विन्ध्य शंकाशील हो गया और उसने सोचा कि मैंने कहीं अन्यथा तो ग्रहण नहीं कर लिया है। वह आचार्य दुर्बलिका- पुष्यमित्र के पास गया । आचार्य ने कहा - ' विन्ध्य ! तुमने जो कहा वह सत्य है, गोष्ठामाहिल की प्ररूपणा मिथ्या है।' विन्ध्य ने जाकर गोष्ठामाहिल से यह बात कही कि आचार्य ने इस प्रकार कहा है । फिर भी गोष्ठामाहिल इसी आशा से वहां रहने लगा कि मैं कुछेक शिष्यों को विपरीतगामी बना डालूंगा ।
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वें पूर्व में प्रत्याख्यान के प्रकरण में यावज्जीवन तीन करण तीन योग से प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ—इस प्रकार प्रत्याख्यान करने का विधान है। गोष्ठामाहिल बोला- 'यह अपसिद्धान्त है।' उससे इसका कारण पूछा गया। उसने कहा - 'समस्त प्राणातिपात का मैं प्रत्याख्यान करता हूं अपरिमाण से । तीन करण तीन योग से परिमाण क्यों नहीं किया जाता ? ऐसा करने से आशंसा दोष निवर्तित हो जाता है ।' यावज्जीवन कहने से परिमाण से आगे अभ्युपगम होता है इसलिए अपरिमाण से प्रत्याख्यान करना चाहिए। मुनि विन्ध्य ने उसे आगम युक्तियों से समझाने का प्रयत्न किया, पर वह नहीं समझा। सब मुनि बोल उठे - ' आचार्य ने ऐसी ही प्ररूपणा की थी।' अन्य गच्छवासी स्थविरों ने भी आचार्य की प्ररूपणा का समर्थन किया। तब गोष्ठामाहिल बोला-'तुम सब नहीं जानते, तीर्थंकरों ने ऐसा ही कहा है।' सभी बोले - 'गोष्ठामाहिल ! तुम नहीं जानते।' जब वह नहीं समझा तब संघ को एकत्रित किया गया। देवता के आह्वान के लिए कायोत्सर्ग किया गया। जो श्रद्धालु देवता था, वह प्रकट होकर बोला- 'क्या प्रयोजन है?' तब देवता से कहा- 'तुम जाओ और तीर्थंकर से पूछो कि गोष्ठामाहिल जो कह रहा है वह सच है अथवा दुर्बलिकापुष्यमित्र आदि श्रमण कह रहे हैं, वह सच है ? ' तब देवता बोला- 'मुझे अनुबल दें।' संघ ने कायोत्सर्ग किया। वह तीर्थंकर के पास गया और पूछा । तीर्थंकर बोले- 'संघ सम्यग्वादी है, गोष्ठामाहिल मिथ्यावादी है । यह सातवां
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