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नियुक्तिपंचक
भी पूरा नहीं हो सका क्योंकि तृष्णा का कहीं अंत नहीं है।' राजा ने प्रसन्न मुखमुद्रा से कहा-'मैं तुम्हें करोड़ों स्वर्ण मुद्राएं भी दे सकता हूँ।' लेकिन कपिल संबुद्ध हो चुका था अत: वह पापों का शमन करने वाला श्रमण बन गया। मुनि बनने के बाद कपिल छह मास तक छद्मस्थ अवस्था में रहा।
राजगृह नगर के बाहर अठारह योजन लम्बी-चौड़ी अटवी में बलभद्र आदि पांच सौ चोर रहते थे। कपिल ने ज्ञान से जाना कि ये संबुद्ध होंगे। वे विहार कर उस अटवी में आ गए। चोरों ने देखा कि कोई हमें पराजित करने के लिए आ रहा है । वे श्रमण कपिल को पकड़कर अपने सेनापति के पास ले गए। सेनापति ने कहा-'इनको मुक्त कर दो।' चोरों ने कहा-'हम इनके साथ खेलना चाहते हैं।' उन्होंने मुनि कपिल को कहा-'आप नृत्य करें।' कपिल ने कहा कि कोई वादक नहीं है। तब वे पांच सौ चोर ताली बजाने लगे। कपिल मुनि भी गाने लगे
'अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए।
किं नाम होज्जतं कम्मयं, जेणाहं दोग्गई ण गच्छेज्जा।।'
अर्थात् इस अध्रुव, अशाश्वत और दुःख-बहुल संसार में कौन सा ऐसा कार्य है, जिससे मैं दुर्गति को प्राप्त न करूं। यह ध्रुपद था। प्रत्येक श्लोक के अन्त में यह गाया जाता था। कुछ चोर प्रथम श्लोक से प्रतिबुद्ध हो गये। कुछ दूसरे श्लोक को सुनकर, कुछ तीसरे श्लोक को सुनकर। इस प्रकार पांच सौ चोर प्रतिबुद्ध होकर कपिल मुनि के पास प्रव्रजित हो गए।
४९. करकंडु
चंपानगरी में दधिवाहन नामक राजा था। चेटक की पुत्री पद्मावती उसकी पत्नी थी। जब वह गर्भवती हुई तब उसके मन में दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं राजा के कपड़े पहनकर उद्यान, कानन आदि में विहरण करूं। दोहद परा न होने से उसका शरीर कुश होने लगा। राजा ने कुश-काय होने का कारण पूछा। रानी ने राजा को दोहद की बात बताई। यह सुनकर राजा और रानी जय नामक हाथी पर आरूढ हए। राजा ने रानी के सिर पर छत्र धारण किया। वे दोनों उद्यान में गए। वर्षाऋत होने के कारण मिट्टी की गंध से हाथी वन की ओर दौड़ने लगा। राजकीय लोग उस हाथी को रोकने में समर्थ नहीं हो सके ! राजा और रानी दोनों को लेकर हाथी अटवी में प्रविष्ट हो गया। राजा ने एक वटवृक्ष को देखकर रानी से कहा-'जब हाथी इस वटवृक्ष के नीचे से गुजरे तब तुम इस वटवृक्ष की शाखा पकड़ लेना। रानी पद्मावती ने राजा की बात सुनी पर वह वृक्ष की शाखा को पकड़ने में असमर्थ रही। राजा दक्ष था अत: उसने तुरन्त शाखा पकड़ ली। अकेली रानी हाथी पर रह गई। राजा वृक्ष से नीचे उतरा और दुःखी मन से वापिस चंपा नगरी लौट आया। इधर हाथी रानी को निर्जन अटवी में ले गया। वहाँ हाथी को प्यास का अनुभव हुआ। उसने एक बड़ा तालाब देखा और उसमें उतरकर क्रीड़ा करने लगा। रानी भी धीरे-धीरे नीचे उतरी, तालाब से बाहर आई। वह अपने नगर की दिशा नहीं जानती थी।
१. उनि.२४६-५२, उशांटी.प. २८७-२८९, उसुटी.प. १२४, १२५ ।
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