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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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का आत्ममंथन आगे चला। उसने संकल्प ग्रहण किया कि यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊंगा तो अवश्य प्रव्रजित हो जाऊंगा। उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी। राजा इसी चिंतन में लीन होकर सो गया। रात्रि के अंतिम प्रहर में उसने स्वप्न देखा कि श्वेत नागराज मंदरपर्वत पर स्वयं चढ़ गया है। सवेरे नंदीघोष की आवाज से वह जागा। वह प्रसन्नमना चिंतन करने लगा कि मैंने श्रेष्ठ स्वप्न देखा है। पुनः वह गहराई से चिंतन करने लगा कि ऐसा पर्वत मैंने पहले कभी देखा है। इस प्रकार चिंतन करते हुए उसे जातिस्मृति हो गई। उसने देखा कि इस जन्म से पूर्व मनुष्य भव में श्रामण्य का पालन करके मैं पुष्पोत्तर विमान में उत्पन्न हुआ था। नमि राजा प्रतिबुद्ध होकर प्रव्रजित हो गया। ५२. नग्गति
भरतक्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर था। वहां का राजा जितशत्रु था। एक बार राजा ने चित्रसभा का निर्माण प्रारम्भ करवाया। उसने चित्रसभा का समविभाग कर विभिन्न चित्रकारों को उसे चित्रित करने के लिए कहा। अनेक चित्रकार उसमें लगे। चित्रांगक नामक एक वृद्ध चित्रकार उसमें चित्र करता था। वृद्ध चित्रकार की युवा पुत्री कनकमंजरी रोज उसके लिए भोजन लेकर आती थी। एक दिन वह भोजन लेकर अपने पिता के पास आ रही थी। जब वह जनसंकल राजमार्ग पर चल रही थी तब तीव्र गति से एक घुड़सवार वहां से गुजरा । वह भयभीत होकर एक ओर सरक गई। घुड़सवार के जाने पर वह अपने पिता के पास आई। चित्रांगक भोजन को आया देखकर शरीरचिंता के लिए चला गया। कनकमंजरी ने कौतुकवश पृथ्वी-तल पर रंगों से बने प्रतिरूप मोरपिच्छ को देखा। इसी बीच राजा जितशत्रु चित्रसभा में आ गया। चित्र देखते हुए उसने पृथ्वी पर मोरपिच्छ को देखा। यह सुन्दर है' ऐसा सोचकर उसने उसे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। वेग के कारण उसके नखाग्रभाग टूट गए। वह चारों ओर दिग्मूढ होकर देखने लगा। कनकमंजरी ने हंसते हुए कहा-'तीन पैर से कोई भी आसंदक-कुर्सी नहीं ठहरती। चौथे मूर्ख पुरुष की खोज करते हुए आज तुम आसंदक के चौथे पैर मिल गए हो।' राजा ने कहा-'कैसे? इसका परमार्थ बताओ।' उसने कहा-'आज मैं अपने पिता के लिए खाना लेकर आ रही थी तब राजमार्ग में एक पुरुष अश्व को बहुत तीव्र गति से चला रहा था। उसके मन में थोड़ी भी करुणा नहीं थी। उसने यह नहीं सोचा कि राजमार्ग से अनेक बाल, वृद्ध, स्त्री आदि गुजरते हैं, कोई भी असमर्थ व्यक्ति उस तीव्रगामी अश्व से कुचला जा सकता है। इसलिए वह महामूर्ख अश्ववाहक आसंदी का एक पैर था। दूसरा पैर है यहां का राजा, जिसने चित्रकारों को समविभाग में चित्रसभा बांटी है। एक-एक कुटम्ब में अनेक चित्रकार होते हैं। मेरा पिता अकेला है। उसके कोई पुत्र नहीं है। वह वृद्ध तथा निर्धन भी है। ऐसे व्यक्ति के लिए भी समविभाग किया है। तीसरा पैर मेरा पिता है, जिसने इस चित्रसभा को चित्रित करते हुए पूर्वार्जित सारा धन खा लिया। इस समय जैसे-तैसे मैं उनके लिए भोजन लाती हूं। भोजन आने के बाद वह शरीर-चिंता के लिए जाता है। भोजन ठंडा हो जाता है। यह कैसा भोजन?' राजा बोला-'मैं चौथा पैर कैसे हूँ?' कनकमंजरी ने कहा-'तुम सब कुछ जानते हो। यहां मोर का
१. उनि २६३-६७, उसुटी प. १३६-४१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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