________________
परिशिष्ट ६ : कथाएं
५१७
बलदेव ने सिद्धार्थ का आलिंगन कर स्नेहपूर्वक कहा-'अब क्या करना चाहिए?' देव ने कहा-'सब प्रकार के परिग्रह को छोड़कर अब आप श्रामण्य को स्वीकार करें और तीर्थंकर अरिष्टनेमि के वचनों को याद करें?' तब बलदेव ने कहा-'तुमने जो कहा वह मैं भलीभांति स्वीकार करूंगा। तुमने भगवान् के वचन याद दिलाकर अच्छा किया। अब कृष्ण के कलेवर का क्या करें?' देव ने कहा-'दो नदी के बीच के तट पर इसे जलाएंगे। तीर्थंकर, चक्री, बलदेव और वासुदेव पूजा के योग्य होते हैं अतः पूजा करेंगे।' तब उन्होंने दो नदी के संगम-स्थल पर कृष्ण के मृत शरीर को रखा, पुष्प, गंध, धूप आदि से पूजा की और शरीर को जला दिया।
अरिष्टनेमि ने बलदेव के प्रव्रज्या समय को जानकर विद्याधर श्रमण को वहां भेजा। उनके पास बलराम ने प्रव्रज्या ग्रहण की। तुंगिया पर्वत के शिखर पर वे तपश्चरण करने लगे। सिद्धार्थ देव पूर्व स्नेह के कारण बलराम की रक्षा में वहीं रहने लगा।
इधर जराकुमार दक्षिण मथुरा में पहंचा। उसने पांडवों को देखा और पांडवों को कौस्तुभ मणि दे दी। उसने द्वारिका विनाश से लेकर पांडवों तक पहुंचने का सारा वृत्तान्त पांडवों को सुनाया पांडवों ने अत्यन्त विलाप और दुःख के साथ एक वर्ष तक उनका प्रेत्यकार्य किया फिर जराकुमार को राज्य देकर स्वयं भगवान अरिष्टनेमि के पास चले गए।
भगवान् अरिष्टनेमि ने चार ज्ञान के धनी धर्मघोष अनगार को अनेक श्रमणों के साथ पांडवों की प्रव्रज्या के लिए भेजा। पांडव उनके पास दीक्षित हो गए। दीक्षित होकर पांडव भगवान के पास जाने के लिए प्रस्थित हुए। वे बेला, तेला, चोला (चार दिन की तपस्या), पंचोला (पांच दिन की तपस्या), पक्ष, मास, छह मास की तपस्या करते हुए चले जा रहे थे। उस समय भगवान् बारह योजन दूरी पर स्थित थे। उन्होंने चिन्तन किया कि कल अरिष्टनेमि भगवान के दर्शन करेंगे अतः रात्रि वहीं बिताई । प्रात:काल उन्होंने जनप्रवाद सुना कि उज्जयंत पर्वत पर भगवान् मोक्ष चले गए। तब वे अत्यन्त दु:खी हुए और पुंडरीक पर्वत पर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए।
समुद्रविजय आदि नव दशार, भगवान् की माता, गजसुकुमाल के साथ दीक्षित होकर देवलोक में गयीं। रुक्मिणी आदि रानियां मोक्ष गयीं। द्रौपदी भी राजीमती के साथ दीक्षा ग्रहण कर, मृत्यु को प्राप्त कर अच्युत कल्प में उत्पन्न हुई। द्वारिका जलन के समय वसुदेव, रोहिणी और देवकी देवलोक में उत्पन्न हुए।
___ बलदेव ऋषि तुंगिया पर्वत के शिखर पर अत्यन्त कष्टप्रद एवं घोर तप कर रहे थे। वे सप्तसप्तमिका भिक्षु प्रतिमा कर रहे थे। सप्तसप्तमिका प्रतिमा इस प्रकार है-'प्रथम सात दिन भोजन में एक दत्ती ग्रहण करना तथा पानी की भी एक दत्ती ग्रहण करना। दूसरे सप्ताह भोजन पानी की दोदो दत्ती ग्रहण करना, तीसरे सप्ताह भोजन और पानी की तीन-तीन दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार सातवें सप्ताह सात दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार ४९ रात दिन में १९६ भोजन और पानी की दत्ती ग्रहण करना। इस प्रतिमा की बलदेव मुनि ने भलीभांति अनुपालना की। इसकी संपन्नता होते ही दूसरी अष्टअष्टमिका भिक्षु प्रतिमा प्रारम्भ कर दी। प्रथम आठ दिन भोजन और पानी की एक-एक दत्ती ग्रहण करना, दूसरे आठ दिनों में भोजन और पानी की दो-दो दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org