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नियुक्तिपंचक
को देखकर विलाप करते हुए अपने पिता के घर आ गए। शीघ्र ही रोहिणी, देवकी और पिता को रथ पर बिठाकर तीव्र गति से चलने वाले बैल को उसमें जोड़ा पर वे अग्नि में जलते हुए रथ को खींचने में समर्थ नहीं हुए अत: बलदेव और वासुदेव स्वयं ही रथ को खींचने लगे। इसी बीच हा महाराज कृष्ण! हा बलराम! हा वत्स! हा नाथ! ऐसा करुण-विलाप सब घरों में सुनाई देने लगा। तब बलदेव और कृष्ण शीघ्रता से नगरद्वार के पास रथ को ले गए पर वहां दोनों रथ इंद्रकील (द्वार का एक हिस्सा) के द्वारा अवरुद्ध हो गए। उस इंद्रकील को बलदेव ने पैर से चूर्ण कर दिया तब वह द्वार अग्नि में जलने लगा।
इसी बीच द्वीपायन ऋषि ने घोषणा की-'अरे ! मैंने पहले ही कहा था कि बलदेव और कृष्ण तुम दो को छोड़कर कोई भी नहीं बच सकेगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है।' तब वासुदेव ने अपने पैरों से आहत कर एक कपाट को धरती पर गिरा दिया और धूं-धूं कर जलते हुए दूसरे कपाट को बलराम ने गिरा दिया। तब वसुदेव ने देवकी और रोहिणी को कहा-'तुम्हारे जीवित रहने से यादव कुल की पुनः समुन्नति हो जाएगी।' अत: शीघ्रता से तुम निकल जाओ। माता-पिता के वचन सुनकर करुण विलाप करते हुए यादव लोग वहां से निकल गए। बाहर भग्न उद्यान में स्थित होकर वे जलती हुई द्वारिका को देखने लगे।
द्वीपायन ऋषि ने देवशक्ति से नगरी के सारे द्वार बंद करके पूर्ण रूप से द्वारिका नगरी को जला दिया। बलराम का प्राणवल्लभ कुब्जवारक नामक छोटा लड़का चरिम शरीरधारी था, वह अपने भवन में ऊपर चढ़कर बोला-'अरे पार्श्वस्थित देवताओ ! मैं जिनेन्द्र अरिष्टनेमि का शिष्य हूँ। मैं समस्त प्राणियों के प्रति दया रखने वाला हूँ। मैं चरिमशरीरी हूं अतः इसी भव में मोक्ष जाऊंगा। यदि भगवान् के ये वचन सत्य हैं तो फिर ऐसा क्यों हो रहा है?' उसके ऐसा कहने पर जृम्भक देव वहां आए। उन्होंने जलते हुए भवन से उसे निकाला और पल्हवदेश में भगवान् के पास ले गए। कृष्ण की सोलह हजार देवियों ने समभाव पूर्वक अनशन कर लिया। सभी धर्मपरायण यादव महिलाओं ने अग्नि के भय से भक्त प्रत्याख्यान कर लिया। द्वीपायन ने नगर की ६० और ७२ कुलकोटियों को जला दिया। इस प्रकार छह मास तक उसने द्वारिका नगरी को जलाया। फिर पश्चिम समद्र में उसको प्लावित कर दिया। .
बलदेव और वासुदेव-दोनों ने अत्यन्त शोक एवं व्याकुल मन से द्वारिका नगरी को देखा। आंसू से गीले नयनों से द्वारिका को देखकर उन्होंने सोचा-'अहो! यह संसार की असारता है। कर्मों की गति का वैचित्र्य है। सारा कार्य नियति के अधीन होता है।' कष्ण ने कहा-'सब परिजनों से रहित शोकाकुल और मरणासन्न तथा भय से उद्विग्न लोचन वाले हम अब कहां जाएं?' बलराम ने कहा-'पराक्रमी पांडव हमारे बांधव हैं अत: दक्षिण समुद्र में स्थित मथुरा नगरी चलते हैं।' कृष्ण ने कहा-'द्रौपदी के लाने के समय महागंगा उतरने के लिए उन्होंने हमें रथ को नहीं भेजा अतः सर्वस्व हरण कर हमने उन्हें निकाल दिया था। ऐसी स्थिति में हम उनकी नगरी में कैसे जाएं?'
बलदेव ने कहा-'वे महापुरुष हमारे ही कुल में उत्पन्न परमबंधु हैं । वे किसी को परिभव बुद्धि से नहीं देखते। नीचकर्मा या क्रूरकर्मा व्यक्ति भी यदि घर पर आ जाए तो वे उसके साथ निष्ठर आचरण नहीं करते।' तब कृष्ण ने बलराम की बात स्वीकार कर ली। वे शरीर-कांति को छिपाते
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