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नियुकिपंचक
पाटलिपुत्र नगर में नंद वंश का नौवां राजा नंद राज्य करता था। वहां कल्पक वंश में उत्पन्न चार बुद्धियों से युक्त शकडाल नाम का मंत्री था। उसके दो पुत्र थे-स्थूलिभद्र और श्रीयक। वहां वररुचि नामक एक भट्टपुत्र रहता था। वह प्रतिदिन प्रशंसावाचक १०८ श्लोकों से राजा की स्तुति करता था। राजा प्रसन्न हुआ। उसने अपने मंत्री शकडाल की ओर देखा लेकिन उसकी आंखों में प्रशंसा के भाव नहीं थे अतः राजा ने उसे पारितोषिक रूप में कुछ भी नहीं दिया। वररुचि ने इसका कारण जाना और शकडाल की पत्नी को कहा कि आप शकडाल को कहें कि वे मेरे द्वारा पढे हए श्लोकों की राजा के सामने प्रशंसा करें। अनुकूलता देखकर पत्नी ने शकडाल से यह बात कही। शकडाल ने सोचा-'यह ठीक नहीं है, फिर भी पत्नी की बात मानकर शकडाल ने उसके पढ़े हुए श्लोकों पर ताली बजा दी। शकडाल को ताली बजाते देख राजा ने वररुचि को १०८ दीनारें पुरस्कार के रूप में दी। राजा प्रतिदिन उसे १०८ दीनारें देने लगा। शकडाल ने सोचा कि इस प्रकार प्रतिदिन दीनारें देने से राज्यकोष रिक्त हो जायेगा।
एक दिन शकडाल ने नंद से कहा-'आप उसे प्रतिदिन इतनी स्वर्ण-मुद्राएं क्यों दे रहे हैं?' राजा ने कहा-'तुमने ही तो प्रशंसा की थी।' शकडाल ने कहा-'यह लौकिक काव्य अस्खलित रूप से पढ़ता है इसलिए मैंने इसकी प्रशंसा की थी।' राजा ने पूछा- क्या ये लौकिक काव्य हैं?' शकडाल ने कहा- मेरी यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, सेणा, बेणा और रेणा-ये सातों पुत्रियां भी इस काव्य को पढ़ना जानती हैं । यक्षा एक बार सुनते ही ग्रहण कर लेती थी। यक्षदत्ता दो बार सुनकर किसी भी चीज को अस्खलित सुना देती थी। यावत् रेणा सात बार सुनकर सुना देती थी।
दूसरे दिन राजा ने अत:पुर में पर्दे के पीछे सातों कन्याओं को बिठा दिया। समय पर वररुचि आया और प्रशस्ति-श्लोक पढ़ने लगा। उसके बाद राजा के आदेश से यक्षा ने वे सारे श्लोक सुना दिए। इस प्रकार सातों कन्याओं ने क्रमशः वे श्लोक सना दिए। राजा को विश्वास हो गया. अत: वररुचि को पुरस्कार देना बंद कर दिया। वररुचि ने दुःखी होकर एक उपाय सोचा। उसने एक यंत्र बनाया और गंगा नदी के बीच रख दिया। उसमें ८०० दीनारों की एक पोटली रखकर यह प्रचारित किया कि गंगा नदी मेरा स्तुति-पाठ सुनकर स्वर्णमय हाथों से ८०० दीनारें देती है। लोगों ने कई बार उस दृश्य को देखा। राजा के पास भी गंगा द्वारा दीनार दिए जाने की बात पहुंची। वररुचि गंगा स्नान कर उस यंत्र के पास खडा रहकर गंगा का स्ततिपाठ करता और यंत्र को पैर से दबाता। इतने में ही एक कनकमय हाथ दीनारों की थैली लिए ऊपर उठता और वररुचि दीनारों की पोटली ले लेता। लोगों को यंत्र की बात ज्ञात नहीं थी। 'गंगा वररुचि को ८०० मुद्राएं देती है', राजा ने मंत्री को यह बात कही। शकडाल ने सोचा कि यह यंत्र के प्रयोग से ऐसा कर अपनी झूठी प्रशंसा कर रहा है। मंत्री ने राजा से कहा-'यदि मेरे सामने गंगा स्वर्णमुद्राएं देगी तो मैं विश्वास करूंगा।'
सन्ध्या के समय मंत्री ने अपने विश्वस्त व्यक्ति को प्रच्छन्न रूप से गंगा के तट पर भेजा। वररुचि स्नान करने आया और चारों ओर किसी व्यक्ति को न देखकर यंत्र में स्वर्णमुद्रा की पोटली रखकर अपने घर वापिस आ गया। वररुचि के लौट जाने पर व्यक्ति ने यंत्र से पोटली निकालकर मंत्री को दे दी। प्रात:काल मंत्री के साथ राजा गंगा के किनारे आया। वररुचि ने गंगा की स्तुति की।
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