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नियुक्तिपंचक
दूसरे वर्ष चातुर्मास के लिए सिंहगुफावासी मुनि ने आचार्य से निवेदन किया कि इस वर्ष मैं कोशा वेश्या के यहां चातुर्मास करना चाहता हूं। आचार्य ने ज्ञान द्वारा मुनि का भविष्य देखा इसलिए उसे बहुत मना किया। लेकिन मुनि आचार्य की आज्ञा की अवहेलना कर कोशा वेश्या के यहां गया। वहां उसने चातुर्मास व्यतीत करने की आज्ञा मांगी। वेश्या ने स्वीकृति दे दी।
कोशा बिना शृंगार के भी नैसर्गिक रूप से बहुत रूपवती थी। कुछ ही दिनों में मुनि उसके अप्रतिम सौन्दर्य पर आसक्त हो गया। कोशा ने अपने अनुभवों से मुनि की आंतरिक इच्छा को जान लिया लेकिन वह श्राविका बन चुकी थी। मुनि के द्वारा भोगों की प्रार्थना किए जाने पर कोशा ने कहा-'इसके बदले तुम मुझे क्या दोगे?' मुनि ने कहा- 'मैं तुम्हें क्या दूं?' वेश्या बोली-'शतसहस्र दें।' अब मुनि शतसहस्र (लाख मुद्राएं) प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगा। कोशा ने कहा-'नेपाल देश का राजा श्रावक है। उसके पास जो व्यक्ति सर्वप्रथम पहुंच जाता है,उसे वह सवा लाख रुपयों के मूल्य वाला कम्बल देता है । वह कम्बल मुझे लाकर दो तो तुम्हारी प्रार्थना पर सोच सकती हूं।'
मुनि कम्बल के लिए नेपाल देश गया। श्रावक राजा ने उसे शतसहस्र मूल्य वाला कम्बल दिया। कम्बल प्राप्त करके पुनः कोशा के पास आने के लिए उसने नेपाल देश से प्रस्थान किया। चलते-चलते एक स्थान पर चोरों की पल्ली आयी। चोरों ने वहां मार्ग अवरुद्ध कर रखा था। एक पक्षी अपनी सांकेतिक भाषा में बोला-'यह व्यक्ति सवा लाख मूल्य की वस्तु लेकर जा रहा है। सेनापति बाहर आया लेकिन मुनि को देखकर वापिस लौट गया। पक्षी की आवाज पुनः सुनकर सेनापति मुनि के पास आया। मुनि ने चोर सेनापति को यथार्थ बात बता दी। सारी बात सुनकर सेनापति ने मुनि को छोड़ दिया।
मुनि कोशा के पास आया और बहुमूल्य कम्बल उसके हाथों में थमा दिया। कोशा ने कंबल से पैर पोंछकर उसे नाली में डाल दिया। यह देखकर मुनि ने कहा-'यह इतना कीमती कम्बल है, इसे मैं कितने परिश्रम से लाया हूं? लेकिन तुमने इसका नाश कर डाला।' अवसर देखकर कोशा ने कहा--'मुनिवर ! आप भी तो ऐसा ही कार्य कर रहे हैं। संयम-रत्न को छोड़कर काम-भोग रूपी कीचड़ में फंसना चाह रहे हैं।' समय पर दी गई वाणी की चोट से मुनि की धार्मिक चेतना जाग गयी। मुनि आचार्य के पास आए और आलोचना कर, प्रायश्चित्त ले शुद्ध होकर विहार करने लगे। आचार्य ने अनुशासना देते हुए कहा-'व्याघ्र और सर्प तो शरीर को पीड़ा दे सकते हैं पर ज्ञान, दर्शन और चारित्र को खण्डित करने में समर्थ नहीं हैं। मुनि स्थूलिभद्र ने सचमुच दुष्कर-महादुष्कर कार्य किया है क्योंकि पहले इसका गणिका के प्रति बहुत अनुराग था। अब वह श्राविका बन चुकी है।' आचार्य ने उस मुनि को उपालम्भ देते हुए कहा-'तुमने दोषों की अवगति प्राप्त किए बिना यह उपक्रम किया, यह तुम्हारे लिए श्रेयस्कर नहीं था।" ११. चर्या परीषह
कोल्लकर (कोल्लाक) नामक नगर में संगम नामक बहुश्रुत आचार्य विहार कर रहे थे। उस नगर में दुर्भिक्ष का प्रकोप हो गया। आचार्य का जंघाबल क्षीण हो गया था अत: वे अन्यत्र विहार
१. उनि.१०१-१०६, उशांटी.प. १०५-१०७, उसुटी.प.२८-३१ ।
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