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निर्यक्तिपंचक बारहवां अध्ययन : हरिकेशीय
३११,३१२. हरिकेश शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमत:, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप के तीन भेद हैं-एकभविक, बद्वायुष्क और अभिमुखनामगोत्र।
३१३. हरिकेश नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावतः हरिकेश होता है । हरिकेश से उद्भूत होने से इस अध्ययन का नाम हरिकेशीय है ।
३१४. हरिकेश ने पूर्व भव में प्रव्रजित शंख युवराज के पास दीक्षा ली थी। किन्तु जातिमद के प्रभाव से वह हरिकेश कुल में उत्पन्न हुआ।
३१५. मथुरा में प्रव्रजित शंखमुनि विहार करते हुए गजपुर नगर में गए। वहां एक पुरोहित पुत्र को मार्ग पूछा। उसने द्वेषवश अग्नि के समान उष्ण मार्ग बता दिया। उस मार्ग पर पाडिहेरद्वारपाल की भांति सदा एक देव सन्निहित रहता था। मुनि उस मार्ग से गए। (देवयोग से वह शीतल हो गया ।)
३१६. हरिकेश, चण्डाल, श्वपाक, मातंग, बाह्य, पाण, श्वानधन, मृताश, श्मशानवृत्ति और नीच-ये एकार्थक शब्द हैं।
३१७. हरिकेश का जन्म 'मृतगंगा' (सूखे प्रवाह वाली गंगा) के तट पर हुआ । प्रवजित होकर वे वाराणसी के तिन्दुक वन में ठहरे। वहां गंडीतिन्दुक यक्ष का मंदिर था। कौशलिक राजा की कन्या सुभद्रा वहां पूजा करने आई । उसने मुनि का रूप देखकर घृणा से उस पर थूक दिया । उसका मुनि के साथ विवाह । मुनि द्वारा परित्यक्त। मुनि का यज्ञवाट मे भिक्षा के लिए जाना ।
३१८. बलकोट नामक हरिकेशों का अधिपति बलकोट था। उसके दो स्त्रियां थीं-गौरी और गान्धारी । गौरी ने स्वप्न में बसन्त मास देखा । बलकोट में उत्पन्न होने के कारण पुत्र का नाम 'बल' रखा । उत्सव में सर्प के आने पर उसे मार डाला गया । दूसरी बार भेरुण्ड सर्प का (दुमुही) निकलना । उसे नहीं मारा गया।
३१९. मनुष्य को भद्र होना चाहिए । भद्र मनुष्य कल्याण को प्राप्त होता है। सविष सर्प मारा जाता है और निविष भेरुण्ड सर्प छोड़ दिया जाता है।
३२०. वाराणसी नगर के तिदुक उद्यान में तिंदुक नामक यक्षायतन था। वहां गंडीतिंदुक यक्ष रहता था। उसी के कारण उस उद्यान का नाम गंडीतिंदुकवन पड़ा ।
३२१. एक दूसरा यक्ष गंडीतिंदुक यक्ष को अपने उद्यान में ले गया। गंडी यक्ष ने कहा-'अरे ! यहां तो मुंडितमात्र होने वाले दीक्षित व्यक्तियों की जमात है। यहां तो स्त्रीकथा, जनपदकथा और राजकथा हो रही है । चलो, हम तिन्दुक उद्यान में लौट चलें।"
१. देखें परि०६, कथा सं० ५४
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