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नियुक्तिपंचक ६४. प्राणी तीन हेतुओं से जीव तथा जीवनिकायों को जानता है- १. अपनी मति से, अपनी स्मृति से । २. तीर्थंकरों द्वारा प्रज्ञप्त वचन सुनकर । ३. अन्य (आप्त के अतिरिक्त) अतिशयज्ञानियों के पास सुनकर ।।
६५. प्रस्तुत प्रसंग में 'सह सम्मुइए' पद से ज्ञान का ग्रहण किया गया है। जानने वाले चार ज्ञान हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान तथा जातिस्मरणज्ञान ।
६६. परवचन व्याकरण का तात्पर्य है-जिनेश्वर द्वारा व्याकृत-भाषित । जिनेश्वर से 'पर-उत्कृष्ट'-कोई और नहीं होता। 'दूसरों के पास सुनकर' का तात्पर्य है-जिनेश्वर के अतिरिक्त सारे पर हैं-दूसरे हैं, उनसे सुनकर ।
६७. मैंने (कर्म बंधन की) क्रियाएं की हैं, करूंगा- इस प्रकार कर्मबंध की चिन्ता बार-बार होती है। कोई इसे सन्मति अथवा स्वमति' से जान लेता है और कोई हेतु-~युक्ति से जानता है।
६८. पृथ्वी के विषय में निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, परिमाण, उपभोग, शस्त्र, वेदना, वध तथा निवृत्ति-इनका कथन करना चाहिए ।
६९. पृथ्वी के चार निक्षेप हैं—नाम पृथ्वी, स्थापना पृथ्वी, द्रव्य पृथ्वी और भाव पृथ्वी ।
७०. द्रव्य पृथ्वीजीव वह है जो भविष्य में पृथिवी का जीव होने वाला है, जिसके पृथ्वी का आयुष्य बंध गया है और जो पृथ्वी नाम-गोत्र के अभिमुख है। भावपृथ्वी जीव वह है, जो पथ्वी नाम आदि कर्म का वेदन कर रहा है।
७१,७२. पृथ्वी जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म पृथ्वीजीव समूचे लोक में तथा बादर पृथ्वी जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। बादर पृथ्वी जीवों के दो प्रकार हैं-श्लक्ष्ण बादर पृथ्वी और खर बादर पृथ्वी । श्लक्ष्ण बादर पृथ्वी पांच वर्ण वाली होती हैकृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल । खर बादर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं
७३-७६. (१) पृथ्वी (२) शर्करा (३) बालुका (४) उपल (५) शिला (६) लवण (७) ऊष (८) लोह (९) ताम्र (१०) त्रपुष (११) शीशा (१२) चांदी (१३) स्वर्ण (१४) वज्र (१५) हरिताल (१६) हिंगुलक (१७) मनःशिला (१८) शस्यक (१९) अंजन (२०) प्रवाल (२१) अभ्रपटल (२२) अभ्रबालुक (२३) गोमेदक (२४) रुचक (२५) अंक (२६) स्फटिक (२७) लोहिताक्ष (२८) मरकत (२९) मसारगल्ल (३०) भुजमोचक (३१) इंद्रनील (३२) चंदन (३३) चन्द्रप्रभ (३४) वैडूर्य (३५) जलकांत (३६) सूर्यकान्त । ये खर बादर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं।'
७७. वर्ण, रस, गंध तथा स्पर्श के भेद से पृथ्वी के अनेक भेद होते हैं। प्रत्येक के योनिप्रमुख संख्येय हैं अर्थात् इनके एक-एक वर्ण आदि के भेद से अनेक सहस्र भेद होते हैं। (इसी के आधार पर पृथ्वी सप्तलक्षप्रमाण वाली होती है।)
७८. वर्ण आदि के प्रत्येक भेद में नानात्व होता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श के भेदों में भी नानात्व होता है। १. अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान अथवा के तथा दो श्लोकों (७५,७६) में मणियों के __जातिस्मृतिज्ञान ।
भेदों का उल्लेख है। २. दो श्लोकों (७३,७४) में सामान्य पृथ्वी
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